उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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चाची की बहन के बेटे से विवाह का रिश्ता हँसकर टाल जाने से इस घर की परिस्थिति गम्भीर हो गयी है।
चाची ने बरामदे के बीचोंबीच दीवार भले नहीं खड़ी की लेकिन एक मोटी रस्सी बाँधकर उस पर धोती, साड़ी, चादरें इस प्रकार फैला-फैलाकर सुखाने लगी कि देखनेवाले उसे पार्टीशन समझ लें तो कोई आश्चर्य नहीं। सुबह तड़के डालती और देर रात को उतारती। इधर वालों का उधर वालों से आँखें चार होने का ख़तरा भी नहीं रहा।
ब्रतती ने जब पहले दिन इसे देखा उस दिन भवेश की हालत बड़ी गम्भीर थी। कोई विशेष बात हो सकती है यह उसने सोचा भी नहीं था। बल्कि सोचा इधर पानी बरसा होगा।
मन और शरीर इतना थका था कि माँ से भी पूछने का मन न किया। लेकिन जब कई रोज़ लगातार कपड़े टॅगे रहते देखा तो पूछा, “माँ, मामला क्या है? यहाँ ये सब सूखने के लिए टाँगा जा रहा है?
लेकिन इतने दिनों से बस इसी एक बात की ओर ध्यान दिया गया था? माँ भी तो गम्भीर है। काम भर से ज्यादा एक शब्द नहीं बोलती है।
अर्थात् माँ भी लड़की पर काफ़ी नाराज़ हैं।
कितनी आसानी से एक जटिल समस्या का समाधान हो गया होता-और तुम घमण्डी लड़की साफ़ इन्कार कर बैठी? तुम शादी नहीं करोगी? ज़िन्दगी भर बस्तियों में घूम-घूमकर करोगी समाजसेवा? जाने किसके चक्कर में फँसी हो। समाजसेवा करने का क्या और कोई तरीक़ा नहीं? गन्दी सड़ी बस्तियों में घुस-घुसकर... छिः।
लड़की के इस काम का कभी भी जी-जान से समर्थन नहीं कर सकी थीं सुनीला परन्तु लड़की के डर के मारे ज़्यादा कुछ कहते भी नहीं बनता है। इस समय सहसा उनका हृदय विद्रोह कर उठा है। ऐसा भी क्या डरना? मैं नहीं तुम्हारी खुशामद करनेवाली। बना-पका देती हूँ खाओ और पड़ी रहो, बस। बातें करने आने की कोई जरूरत नहीं है।
भवेश दा की चिन्ता में व्यस्त ब्रतती ने माँ के इस भावान्तर पर विशेष ध्यान नहीं दिया था। सोच लिया कि चाचा-चाची के व्यवहार के कारण ही माँ गम्भीर है।
आज माँ की तीक्ष्ण युक्ति सुनकर चौंक पड़ी।
माँ बोलीं, "छाती पर दीवार खींच सकती थी। वही खींची है इसे अपनी किस्मत समझ।"
उसने माँ की ओर देखा। कुछ बोली नहीं। नहाने चली गयी।
लेकिन सुनीला अनकही बातों को कहने के लिए आकुल-व्याकुल हो उठीं। इसीलिए बोल उठीं, “इतने बड़े अपमान के बाद भी तुम्हारे चाचा ने घर आधा नहीं कर लिया है यह हमारा भाग्य ही है।"
हाथ में तौलिया लपेटते हुए ब्रतती बोली, “अपमान करना तो उन्हीं के अधिकार में रहा है माँ, और तुम नीलकण्ठ महादेव की तरह उसी अपमान को हजम करने में पारंगत हो। सहसा यह पाला कैसे और कब बदल गया?'
"कब? पूछते हुए शर्म नहीं आ रही है? चाचा-चाची मान-इज्जत ताख पर रखकर ऐसा एक रिश्ता ले आये थे, तुमने एकदम से दुत्कार दिया। मुँह देखना नहीं चाहती है तभी बीच में पर्दा लटका दिया है।”
“ऐं ! यह बात है?” सहसा ब्रतती को बड़ी ज़ोर से हँसी आयी। बच्चों जैसी बातें।
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