उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
|
2 पाठकों को प्रिय 349 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
इन पर क्या नाराज़ होना।। सुनीला गुस्से से बोलीं, “इसमें हँसने की क्या बात है?”
"यूँ ही हँसने की इच्छा हुई-हँस पड़ी।"
"जानती हूँ, मैं तुम्हारे लिए हँसी की पात्र हूँ। फिर भी तुम्हें मेरी बात पर गौर करना होगा। इन्सान मैं भी हूँ। भाग्य ही ऐसा है कि जीना हराम लगता है। वे बेवक्त मुझे बीच दरिया में छोड़कर चले गये। घर में ऐसे रहना पड़ता है जैसे विरोधी पक्ष की हूँ। अपने पेट से जन्मी लड़की, लगता है, कोसों दूर रहती है वरना एक लड़की से भी इन्सान का घर भर जाता है। इतने दिनों में तो दामाद-नाती-पोती से मेरा हृदय भरपूर हो गया होता। वह नहीं लड़की है कि..."
चुप हो गया अदम्य जलोच्छ्वास।
ब्रतती नहाने चली गयी।
नहाते-नहाते सोचने लगी, इसमें दोषी किसे ठहराया जाये? अगर माँ अत्यन्त ही साधारण मनोवृत्ति की है तो सिवाय सृष्टिकर्ता के और कौन दोषी होगा?
ब्रतती माँ से कुछ प्रत्याशा नहीं करती है।
सोचते-सोचते ध्यान भवेश दा की ओर चला गया और उनसे हटकर सौम्य की ओर।
आज सौम्य ने कहा था, “भवेश दा तो चले जा रहे हैं। हमारा क्या होगा बोलो?' ब्रतती ने कहा था, “पता नहीं। मुझसे सोचा नहीं जा रहा है।"
"ऐसे लोग धरती पर ज़्यादा दिन रहते क्यों नहीं हैं?"
"मालूम नहीं। मेरा हृदय एक खालीपन महसूस कर रहा है, सौम्य।" . लेकिन ये बातें तो कुछ दिनों पहले की हैं।
भवेश भौमिक नामक इन्सान तो अब इस दुनिया में है ही नहीं।
क्रियाकर्म करके लौटते-लौटते उस दिन सभी को देर हो गयी थी। हर रोज़ से ज्यादा रात को जब ब्रतती घर लौटी सुनीला दरवाज़े पर ही बैठी थीं। वह नहीं चाहती थीं कि पूर्णेन्दु दरवाज़ा खोलें।
घर में घुसते ही दबी आवाज़ में रुआंसे स्वर में कहा, "दया करके इस समय कछ मत कहना, माँ।” दोनों हाथ जोड़कर सुनीला की ओर बढ़ा दिये तो सुनीला ठिठककर चुप हो गयीं। उसके बाद लड़की का चेहरा निहारते हुए पूछा, “...चले गये?"
माँ से ब्रतती को ऐसे बोलने की आशा न थी। उसने दोनों हाथों में चेहरा छिपा लिया।
उस दिन से सुनीला ने अपना कठोर व्यवहार बदल डाला। जिस व्यक्ति के कारण उनकी लड़की ऐसी हुई जा रही है, क्या उसे कभी कोस सकी थीं सुनीला?
|