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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

21


मेला ख़त्म हो चुका है। अब भीड़ भी इकट्ठा नहीं होती है। फिर भी कुछ नियमित आनेवाले तो होते ही हैं।

काम कितना होता है क्या मालूम... फिर भी जो होता है वह है भवेश दा को याद करना। काम के माध्यम ने जोड़े बना दिये थे। जैसे गौतम और अत्री जहाँ जाते साथ ही जाते। भवेश-भवन में किसी भी समय क्यों न आयें, निकलते वक्त साथ निकलते हैं।

और यही बात लागू होती है सौम्य और व्रतती पर।

अदृश्य एक आकर्षण ने दोनों को पास ला दिया था। थोड़ा-बहुत आकर्षण का अनुभव करबी और सचिन भी करते थे।

सकुमार का कोई जोड़ा नहीं लेकिन वह यहाँ नियमित आता है। उसने एक अद्भुत काम किया था। भवेश का कोई चित्र नहीं था। उसने दीवार की सबसे ऊँची कील पर भवेश का एक पैजामा और उसके ऊपर वही बाँह-कटा कुर्ता टाँग दिया था। ज्यों ही आता है उन्हीं कपड़ों के नीचे अगरबत्ती जला देता है। अगरबत्ती-स्टैण्ड नहीं है। एक खाली दियासलाई के डिब्बे को उसने स्टैण्ड बना लिया है।

अगरबत्ती जलाने के बाद तख्त पर खड़ा हो जाता है और कहता है, “समझे भवेशदा ! कुछ नहीं होगा कुछ नहीं। मैंने हिसाब लगाकर देखा है देश में वयस्क मज़दूरों से ज़्यादा शिशु श्रमिक हैं। इन्हें घर पर भी खटना पड़ता है, बाहर भी। इनके माँ-बाप कसाइयों की तरह इनसे काम करवाते हैं, इनके मालिक जल्लाद बनकर सिर पर सवार हो जाते हैं। जो लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, मुँह के आगे माइक पकड़कर लम्बे-लम्बे भाषण देते हैं, इनके दुःख से दुःखी होकर आँसू बहाते हैं, वे भी अपने-अपने घरों में एक छोटी-सी लड़की से तीन सयाने नौकरों का काम करवाते हैं। हाँ, आप चाहें तो जाकर देख आइए। फ्राक पहने छोटी-छोटी लड़कियाँ खाना पका रही हैं, बर्तन माँज रही हैं, झाडू-पोंछा कर रही हैं, बाजार भी वही जा रही हैं और ज़रा-सा भी इधर-उधर हो गया तो डॉट और मार भी खा रही हैं। जाइए, देखिए जाकर। अब तो आप हर जगह हर समय पहुँच सकते हैं भवेशदाजी चाहे तो किसी भी घर में घुस सकते हैं।'

सकुमार का यह पागलों जैसा प्रणाम करना और लोग बैठे-बैठे देखते व सुनते। कभी-कभी सकुमार बैठे-बैठे ही कहता है, 'समझे भवेशदा, कल हावड़ा बाजार की तरफ गया था। जाकर देखता क्या हूँ कि पुलिस एक झोंपड़ी तोड़ रही है। बस्ती का उत्थान किया जायेगा-हर किसी को पक्का घर बना दिया जायेगा। कम से कम वोट प्राप्त करने के लिए वादा तो करना चाहिए। खैर... तो झोंपड़ी का सारा मलबा टोकरी भर-भर कौन बटोर ले गया। जानते हैं? ये ही बच्चे जिनके शायद माँ-बाप भी हैं।'

“आप ही बताइए भवेशदा, लोगों में चेतना कैसे जगायी जाये? स्टेज पर खड़े होकर कुछ डॉयलॉगबाजी की और चले गये-इससे भला नाटक जम सकता है?"

सुकुमार क्या पागल हो गया है? नहीं। वह पागल नहीं हआ है लेकिन उसे जो कुछ कहना रहता है वह इसी तरह कहता जाता है।

जब चाय आती है उसे हिलाकर कहा जाता है, “सुकुमार चाय।” हाथ बढ़ा कर चाय का कुल्हड़ ले तो लेता है परन्तु उसी के साथ कहते नहीं चूकता है, 'मैंने  कहा न-कुछ नहीं होगा। हमीं लोगों को देख लो, हम भी आना बन्द कर देंगे। काम करने नहीं जायेंगे। कह देंगे, अरे वह भवेशदा बिल्कुल पागल था। दो मुट्ठी बालू लेकर चले थे समुद्र में बाँध बाँधने।'

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