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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

ब्रतती ने कभी कहा था, “इसे या इसके जैसों को तुम रोक कैसे सकते हो सौम्य? जन्म से ही इन्हें मालूम है, इन्हें कुछ न कुछ कमाना है।"

बस पकड़ने के लिए चलते-चलते बातें हो रही थीं। एकाएक ही सौम्य पूछ बैठा था, “अच्छा ब्रतती, तुम्हें क्या लगता है, सुकुमार पागल हो रहा है?"

ब्रतती मुस्करायी। बोली, “मुझे क्या लगता है सुनकर क्या करोगे?' "बाधा हो तो कहने की ज़रूरत नहीं है।”. रास्ता चलते-चलते भावुक दृष्टि से देखना सम्भव नहीं, हाँ स्वर गाढ़ा किया जा सकता है।

उसी गाढ़े स्वर में बोली, “तुम्हें बताने में बाधा कैसी?"

उसके बाद हँसकर बोली, “मुझे लगता है यह एक तरह का आत्ममोह है। आत्म-छलना भी कह सकते हो। वह स्वयं ही अपने आपको ऐसा देखना चाहता है, सोचना चाहता है। और दस जनों से वह भिन्न है, अलग है। यह उसका अव नशा-सा हो गया है।"

फिर हँसी।

कहती रही, “असल में बहुत लोगों में ऐसे शौक़ होते हैं। अगर 'अ-साधारण' न बन सके तो 'अ-स्वाभाविक' बनने की साधना करना। हालाँकि यह मेरी धारणा मात्र है। मैं सोचती हूँ इन्हीं के जैसे लोगों को ही 'स्वआदेश' मिला करता है, ये लोग ही धर्मकथा सुनाते फिरते हैं, इन्हें ही गड़ी हुई भगवान की मूर्ति मिलती है। ये लोग ही तावीज, कवच आदि बाँटते फिरते हैं। फिर भी इन्हें धोखेबाज़ या ठग कहना ठीक न होगा। क्योंकि ऐसे लोग स्वयं ही नहीं समझ पाते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। अगर हम सहसा सुकुमार को किसी चौराहे पर खड़े होकर भाषण देते देखें तो

शायद आश्चर्यचकित नहीं होंगे।"

सौम्य ने हँसकर पूछा, "तुम यह सब बातें सोचती कब हो?'

"बैठे-बैठे सुबह से शाम तक सोचती हूँ ऐसा नहीं है। फिर भी कभी-कभी ऐसी बातें दिखाई पड़ जाती हैं तो सोचना पड़ जाता है। 'कुछ विशेष' बनने के लिए ही शायद यह लोग उलटे-सीधे रास्ते पकड़ लेते हैं।”।

सौम्य हँसते हुए बोला, “तब तो हमें सुकुमार को वॉच करना होगा।"

बस-स्टैण्ड आ गया। सौम्य को लगा भवेशदा के घर से बस स्टैण्ड तो दूर था। एकाएक आज इतना पास कैसे सरक आया?

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