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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

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घर लौटते ही ब्रतती ने अनुभव किया कि बड़े जोर-शोर से खाना बनाया जा रहा है। छौंक की महक, कल्छी चलाने की आवाज और उसी के साथ-साथ लोगों के बोलने की आवाज़ दूर तक सुनायी पड़ रही थी।

अब बरामदे के बीच में बँधी रस्सी खोल दी गयी थी। दो चौके भी समाप्त हो गये थे। सारा खाना इधर ही बनता था।

चाचा में भी अद्भुत एक परिवर्तन आया था। ब्रतती देखती है, चाचा अपनी भाभी की महानुभवता पर बिछते चले जा रहे थे, कृत-कृत्य हो रहे थे। भाभी ने उनकी गृहस्थी की नाव का चप्पू थामकर मजे से खेना शुरू कर दिया, गृहस्थी विशृंखल नहीं हुई, बच्चों को ज़रूरत से ज्यादा प्यार मिलने लगा तो उनका कृतार्थ होना स्वाभाविक ही था।

ब्रतती ने आकर देखा कि माँ रसोईघर में हैं और चाचा वहीं दरवाजे के पास एक मोढ़े पर बैठे-बैठे बातें कर रहे हैं।

पास ही चटाई बिछाकर खूकू और बबुआ पढ़ रहे थे। माँ की मृत्यु के बाद से वे दोनों पढ़नेवाले कमरे में नहीं पढ़ते हैं। सोनेवाले कक्ष में भी नहीं जाते हैं। जब तक उनके पिता घर नहीं लौट आते हैं वे अपनी ताई के आसपास ही चक्कर काटा करते हैं। उनसे सटकर बैठे-बैठे किस्से-कहानियाँ सुना करते हैं। चाचा को भी माँ की हाँ में हाँ मिलातें देखकर ब्रतती बड़ा आश्चर्य करती। क्या पहले कही गयी कटक्तियाँ इतनी जल्दी बिसर गये? शर्म नहीं आती है?

चाचा के हावभाव से लगता ही नहीं है कि कभी वे किसी दूसरी रसोई में खाना खाते थे।

कभी माँ दुःखी होकर कहती थी, “नयी-नयी ब्याह कर आयी थी तो हमउम्र देवर से मेरी खूब पटरी खाती थी। हम दुनिया जहान की बाते किया करते थे। बातें थीं कि ख़त्म ही नहीं होती थीं। आज वही आदमी मुझसे बोलता तक नहीं है। जब भी बोलने आता है, गालियाँ बकता है, गन्दी बातें करता है।"

माँ की बातें सुनकर कभी-कभी ब्रतती पूछ लेती थी, “तब क्या बातें करती थीं?"

माँ बताती, “इतना याद थोड़े ही है ! और फिर बातों का कोई सिर-पैर तो था नहीं। तेरे चाचा ही बाहर की खबरें ले आया करते थे। नया-नया कॉलेज में दाखिला हुआ था। अपने को खूब क़ाबिल समझते थे। नये-नये दोस्त भी हए थे। कितनी बातें बताते थे। बड़े ही हँसमुख थे।"।

चाचा हँसमुख थे यह बात ब्रतती को भी याद है। बचपन की, बाल्यकाल की नोटबुक में यह बात दर्ज़ है।

लम्बी साँस छोड़कर माँ कहतीं, “फिर यह ‘गलफुल्ली' आयी और एक इन्सान बिल्कुल ही बदल गया।"

दरवाजे में एक नया ताला लगा लिया है। एक चाभी उसके पास रहती थी। पहले चाचा जब दरवाजा खोलने आते थे तब जिस तरह से देखते थे, ब्रतती का मन कडुआ हो जाता था। अब उसने यह व्यवस्था कर ली है।

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