उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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लड़के के रहने के ठिकाने का पता बहुत पहले ही चल गया था उदय की माँ को। लेकिन लड़का पकड़ में नहीं आ रहा था। जाने कब कहाँ काम करने चला जाता है। 'भवेशभवन' में भी ऐसा कोई नहीं रहता था जो पता बता देता।
अचानक एक दिन मिल गया।
एक नये बन रहे मकान के सामने लॉरी पर से ईंटें उतार रहा था। उसके साथ दो जवान आदमी भी थे।
उदय की माँ भागकर वहाँ पहुँची। बोली, “तू यह काम कर रहा है उदय?
माँ के हृदय का आर्तनाद सुनकर उदय का हृदय भी आर्तनाद कर उठा। फिर भी उदय ने हाथ का बोझ सामने हाथ बढ़ाकर खड़े आदमी को पकड़ाते हुए कहा, “क्यों? काम में बुराई क्या है?'
“इस उमर में यह काम? याद नहीं है आताबागान में वह बहनजी आकर क्या कहती थीं?'
"बहनजी की बात छोड़ो।”
माँ ने पूछा, “और कितनी देर तक यहाँ खटना होगा?"
“यही जब तक ईंटें लॉरी से उतर नहीं जाती हैं। क़रीब-करीब हो गया है।"
“मैं उधर पेड़ के नीचे जाकर खड़ी होती हूँ, उदय। तू काम खत्म करके झटपट चला आ।"
माँ को देखकर उदय का हृदय तड़प रहा था लेकिन दिल की बात होठों पर लानेवाला जीव वह नहीं। इसके अलावा उसे लग रहा था, उधर पेड़ के नीचे केष्टो चाचा भी खड़े हैं।
मुँह बिचकाकर लापरवाही जताते हुए बोला, “क्यों? मुझसे तुझे क्या काम है?"
"माँ के लिए तेरा दिल कभी रोया नहीं उदय?'
“रोये भी तो क्या करूँ?'
इसी समय लॉरी वाला बिगड़कर डाँटने लगा। उदय बोला, “अब तू यहाँ से चली जा न।”
निर्मला वहाँ से हट गयी।
लेकिन चली नहीं जायेगी वह। लड़के को ले जायेगी।
लेकिन वह जायेगा क्या?
क्यों जायेगा?
"मुझे यहाँ कोई तकलीफ नहीं है। मैं मजे में हूँ।"
“तुझे छोड़कर मुझे बड़ा कष्ट होता है रे उदय। चल बेटा, मेरे साथ चल। बहुत अच्छा घर है। घर में कोई अभाव नहीं। कमी नहीं।"
आग्रहपूर्वक उदय ने पूछा, “सारी घर-गृहस्थी तेरी ही है?"
निर्मला का चेहरा उतर गया। हाथ की बीड़ी फेंककर अब केष्टो आगे बढ़ आया।
“मैं तो तेरे लिए पराया नहीं हूँ, बेटा। अपना आदमी हूँ। एक लड़का पालने लायक क्षमता है मुझमें। तेरी माँ लड़का-लड़का करके मरी जा रही है।"
"नहीं। मैं बहुत मज़े में हूँ।"
निर्मला लगभग बिलख पड़ी, "इसे तू मजे में रहना कहता है? तेरा केष्टो चाचा कितना चाहता है तुझे। कितना ढूँढ़ने के बाद..."
केष्टो भी बोला, “चल न मेरे बाप ! सुख से रहेगा।"
"सुख मुझे बरदाश्त नहीं होता है।"
“बूली हर समय तुझे याद करके 'दादा'-'दादा' किया करती है। चल न बेटा ! सब मिलकर इकट्ठा रहेंगे।"
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