उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
उदय ने एक बार माँ के मुँह की तरफ़ देखा फिर केष्टो चाचा की तरफ़। आदमी बुरा नहीं है। मन में इसके दया-माया है।
फिर भी उसने सिर हिलाया।
"न ! अच्छा साधीन जीवन जी रहा हूँ।"
केष्टो बोला, “वहाँ भी तू साधीन जीवन ही जीयेगा। कोई तुझसे कुछ नहीं कहेगा।"
"मेहनत करके कमाने दोगे?'
निर्मला चौंक उठी।
“लो, इसकी बात सुनो। जिसके लिए इतना कुछ हो गया, तू वही करना चाहता है? अब तो हमें किसी तरह का अभाव नहीं है, बेटा। मैं खुद पाँच घर काम करती हूँ और अपने केष्टो चाचा को तो जानता ही है। डाकघर में काम करता है। अब तो तनख्वाह भी बढ़ गयी है।"
जंगली घोड़े की तरह गर्दन टेढ़ी करके उदय फिर भी अकड़ा रहा, “वह तुम लोगों का मामला है। मैं साधीन रहना चाहता हूँ।"
केष्टो ने जल्दी से मध्यस्थता करनेवाली आवाज़ में कहा, “अच्छा बेटा, वही करना। ईंटें ढोने के अलावा भी दुनिया में बहुत तरह के काम हैं। घर में रहेगा, माँ के हाथ का बना खाना खाएगा-तेरी माँ अच्छा कुछ पकाते ही कहती है, उदय को यह बहुत पसन्द है।"
उदय सहसा जिद्दी और सन्देही स्वर में बोल उठा, "लेकिन इससे पहले तो कभी माँ को इतना प्रेम जताते नहीं देखा था। अब अचानक..."
निर्मला रो पड़ी।
आँचल से आँखें पोंछते हुए बोली, "तब क्या मैं अपने आपकी मालिक थी रे ! तेरा हरामी बाप रात-दिन दाँत किटकिटाता और मारा करता था। उस पर मेरी रोज़गार की कमाई हाथ मरोड़कर छीन लेता था शराब पीने के लिए। हर दिन खाने तक को नहीं मिलता था, प्रेम क्या जताती ...चल बेटा हमारे साथ।"
उदय बोला, “अभी कैसे जाऊँ काम छोड़कर?'
“अभी तो तूने कहा काम खत्म हो गया है।"
“मजदूरी नहीं लेनी है क्या?"
केष्टो ने पूछा, “हाथों हाथ दे देते हैं क्या?'
“नहीं देंगे तो कौन ठेके पर काम करेगा?"
“तब ठीक है। तेरी माँ घर चली जाये, मैं खड़ा हूँ। तुझे साथ लेकर घर जाऊँगा।"
"तुम समझा दो न घर कहाँ है, मैं खुद ही चला आऊँगा।"
"वह तू नहीं समझ सकेगा। रेल लाइन के पल्ली तरफ़ है। मैं खड़ा हूँ न।”
एकाएक उदय भौंहें सिकोड़कर बोल उठा, “मुझे लेकर इतना खींचातानी क्यों कर रहे हो? ज़रा अपना प्रयोजन तो साफ़-साफ़ बताओ??
केष्टो से तुरन्त कुछ कहते न बना। इस सवाल की उसे आशंका नहीं थी। सँभलकर बोला, “प्रयोजन क्या होगा ...तेरी माँ रोया करती है।"
“अच्छा चलो, चलता हूँ।”
"मजदूरी नहीं लेगा?"
"मेरी मज़दूरी मेरा दोस्त लेकर रख देगा।"
"हर रोज़ कितना देते हैं?
“कोई ठीक नहीं है। जिस दिन जैसा... सैकड़े पर दाम लगाते हैं।"
निर्मला बोली, “काम बड़ा तकलीफ़ का है रे उदय।”
“मैं पूछता हूँ किस काम में तकलीफ़ नहीं है? तुम जो पाँच घर बर्तन माँजती फिरती हो वह आराम का काम है?"
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