उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
लेकिन बिल्कुल शुरू में उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी बात कहे कैसे? सोचते-सोचते जाने कब ऐसे सुन्दर, उदार सहज स्वभाव के इन्सान को दिलोजान से चाहने लगी। उसी प्यार ने ही उसमें निर्भीक दुःसाहस की शक्ति भर दी।
किंशुक ने कहा, “मन में एक कष्ट को लिये फिर रही हो फिर भी सहज बनने की कोशिश करती हो, इसमें तुम्हें बड़ी तकलीफ़ होती है न?”
"हन्ड्रेड पर्सेण्ट।”
इसके बाद कोमल स्वर में बोली, “असल में बेचारे को मेरे माँ-बाप ने केवल गरीब होने के कारण ही इतना अपमानित किया था। मुझे उसी बात का कष्ट सालता रहता है। एक पुरुष के लिए अपमान बड़ा ही यातनापूर्ण होता है."
किंशुक ने उसे अपने पास खींच लिया फिर धीरे से कहा, “मुझ पर तुम्हें खूब गुस्सा आता है न?”
“वाह ! खूब ! तुम पर क्यों? बल्कि तुम्हारे पूजनीय सास-ससुर पर आता है।" “उन लोगों ने ऐसा किया तो तुमने प्रतिवाद क्यों नहीं किया?"
मिंटू ने गम्भीर दृष्टि से कुछ पल उसे देखने के बाद कहा था, “दूसरा पक्ष भी तो कुछ इनीशिएटिव लेगा? वही अगर हिम्मत हार बैठे और सोचना शुरू कर दे 'मैं तुच्छ हूँ', 'मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ', तब? 'मैं वामन हूँ, मेरा चाँद की तरफ़ हाथ बढ़ाना मूर्खता है' तब?”
किंशुक ने देखा था कि मिंटू की आँखें आँसू से डबडबा रही हैं। इसके बाद उसने कुछ नहीं कहा था।
बल्कि थोड़ी देर बाद कहा था, “अगले सोमवार को दफ़्तर में एक झमेला है।"
और कोई वक्त होता तो मिंटू बोल उठती, "झमेले तो तुम्हारे दफ्तर में रोज हुआ करते हैं।"
आज उसने आँखों में भर आये आँसुओं को न गिरने देने के इरादे से दूसरी तरफ़ मुँह फेरकर पूछा, “कैसा झमेला?"
“अरे जर्मनी से एक मशहूर केमिस्ट आ रहे हैं हमारी लैबोरेटरी में। यही सुख दुःख, अच्छाई-बुराई का मुआयना करने। हम सब तो ठहरे 'महामूर्ख'।"।
किंशुक के बात करने का ढंग ही ऐसा है।
अब मिंटू ने बात की, “जबकि यहीं से जितने अच्छे-अच्छे लड़के विदेश चले जा रहे हैं काम करने के लिए।”
“वही तो।” कहकर किंशुक हँसने लगा।
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