उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
|
2 पाठकों को प्रिय 349 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
45
उसी रात किंशुक ने मिंटू को अपने हृदय से लगाते हुए शान्त स्वर में कहा था, "मिंटू, तुम तो कभी-कभार उसे चिट्ठी लिख सकती हो।”
मिंटू छिटककर दूर हट गयी। कठिन स्वर में बोली, “तुम क्या मेरी परीक्षा ले रहे हो?'
"छिः मिंटू।” किंशुक का स्वर आहत था। मिंटू ज़रा देर चुप रहने के बाद बोली, “इससे फायदा?'
"सब कुछ क्या नुक़सान और फ़ायदा देखकर किया जाता है?
“फिर भी। किसी काम का कोई कारण तो होगा !"
“नहीं, माने वे सज्जन मायूस हो गये होंगे शायद !"
“अगर हो गये हैं तो तुम्हें तो उनसे सहानुभूति दिखाने की जरूरत नहीं है।" मिंटू ने सहज ढंग से ही यह बात कही।
किंशुक वोला, “हर पुरुप ईर्ष्यालु होता है तुम लोगों की यह धारणा गलत है मिंटू। मान लो, स्वजातीय प्रेमवश ही में उन सज्जन की मानसिक दशा को समझ रहा हूँ। तुमने अगर उन्हें समझने दिया होता कि अपनी माँ पिताजी की पार्टी में शामिल नहीं हो..."
मिंटू बोली, “वह मैं चिट्ठी लिखकर न बताऊँ तो भी समझेगा."
“मैंने लेकिन जब से सुना है तभी से मुझे उनके लिए बुरा लग रहा है।"
"जिसे आँखों से देखा तक नहीं है उसके लिए."
"हाँ उन्हीं के लिए। साथ ही जिसे आँखों से देख रहा हूँ उसके लिए भी।"
सहसा मिंटू खूब हँसने लगी। फिर बोली, “ओ बाबा ! क्यों मैंने तुम्हें बताने की यह गलती की? अच्छी-खासी सुख-शान्ति थी, अमन-चैन था।”
किंशुक बोला, “वह तो था। मैं भी सुख से था लेकिन तुम? तुम तो अच्छी-खासी सुख-शान्ति..." .
मिंटू ने किंशुक की छाती पर सिर रखते हुए कहा, “थी। सुख से थी। सचमुच। तुम जैसा ऐसा अद्भुत आश्चर्यजनक इन्सान मैंने कभी नहीं देखा था।"
“अरे बाप रे !" किंशुक ने मिंटू को बाँहों में कसते हुए कहा, “आश्चर्य के तो तरह-तरह के अर्थ होते हैं। तुषारमानव भी आश्चर्यजनक होता है, जानवर भी आश्चर्यजनक हो सकते हैं।"।
“ओफ्फ़ो ! बहुत बेकार की बातें करते हो तुम।"
किंशुक ने कहा, “तब फिर एक काम की बात करता हूँ। मन की गहराई में तकलीफ़ पालते हुए तुम सहज स्वाभाविक बनने की कोशिश मत करना।"
“तब फिर क्या करना होगा? असहज असामान्य बनी रहूँ? माने, कभी रोऊँ, कभी हँसू, कभी प्रेमपत्र लिखने बैठ जाया करूँ? और..."
“न ! तुम भी आश्चर्यजनक लड़की हो। असल में तुम्हारी जैसी लड़की मैंने भी पहले कभी नहीं देखी। बात क्या है जानती हो? माने, मैं ठीक से समझा नहीं पा रहा हूँ। मैं ये कहना चाहता हूँ कि अगर तुम अपने प्रथम प्रेम को दिल से मिटा डालना चाहती हो, उसे भूल जाना चाहती हो तो मैं समझूगा तुम हार्टलेस हो।”
“ओफ्फ़ो, यह तो बड़ी भारी मुसीबत हो गयी? तुमसे अपने प्रथम प्रेम का क़िस्सा क्या सनाया तुमने तो आफत मचा दी है। ठीक है मैं हृदयहीन ही सही। एक दबंग कहलाने वाले अफ़सर की अक्ल इतनी मोटी है यह कौन जानता था?'
किंशुक ने गाढ़े स्वर में कहा, "मैं लेकिन तुम्हारे सुख-दुःख का भागीदार बनना चाह रहा था। जिसे तुम चाहो वह भला मेरी ईर्ष्या का पात्र क्यों होगा? वह भी तो मेरा प्रेमपात्र हो सकता है।”
“यह भी क्या तुम्हारी लैबोरेटरी के एक्सपेरीमेण्ट जैसी बात है !"
"मिंटू, लगता है तुम मुझ पर विश्वास नहीं कर पा रही हो। देखो, तुम अगर मेरे पास अपने वचपन की बातें करो तो वहुत हल्का महसूस करोगी।"
मिंटू उससे और सटते हुए बोली, “अच्छा याद रखूगी। इस समय मुझे बड़ी याद आ रही है।”
“अरे ! मुझे तो जमकर नींद नहीं आ रही है। अब क्या करें? ए मिंटू?"
उसके बाद बातचीत बन्द हो गयी।
|