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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

46

 

यूँ माँ के आचरण पर अवाक् होना छोड़ ही दिया था ब्रतती ने। फिर भी ब्रतती की शादी की बात सुनकर माँ पत्थर की मूर्ति बन जायेंगी यह उसने नहीं सोचा था।

अभी उस दिन तक तो सुनीला लड़की की शादी के लिए परेशान रहती थीं। 'शादी' 'शादी' करके नाक में दम किये रहती थीं। लड़की अनिच्छुक है जानकर रोती थीं, नाराज़ होती थीं।

"इस बार तय किया है शादी करोगी? चलो अच्छा है।" कहने के बाद माँ ने चुप्पी साध ली।

ब्रतती ने सोचा था चाचा खुश होंगे, अपने आपसे प्यार भरे दो-चार शब्द कहेंगे, वह भी नहीं हुआ।

केवल खुकू आयी। डरते-डरते उसने इधर-उधर देखा फिर बोली, “जब ताईजी ने तुमसे शादी करने को कहा था तब तुमने नहीं की और अब कर रही हो?'

"तुमसे किसने कहा?”।

"मुझे सब पता चल जाता है बाबा।"

खुकू ही-ही करके हँसकर बोली, “तुम जब घर नहीं रहती हो तो तब ताईजी रसोई में, भण्डार में दीवारों से अकेली-अकेली बोला करती हैं। मुझे सब सुनाई पड़ता बड़ी मुश्किल से ब्रतती ने अपने को सँभाला फिर होठ दबाकर बोली, “दीवार के साथ? दीवार कहीं बात करती है?"

“आ हा, दीवार क्या सचमुच बोलती है? दीवार के साथ माने दीवार को सुना-सुनाकर। कहती है, मेरा हाल तो वैसा है जैसा तरकारी में ज्यादा नमक पड़ने से जहर हो जाता है।"

“तू इस बात का माने समझती है?”

“समझूँगी क्यों नहीं? माने तो तुम हो।"

“मैं तरकारी हूँ?'

“अरे यह तो तुलना है।"

व्रतती का जी चाह रहा था पूछे और क्या-क्या कह रही थीं तेरी ताईजी।

लेकिन ऐसा न पूछ सकी।

शाम को पूर्णेन्दु की उपस्थिति में सुनीला ने बात उठायी।

यद्यपि चाचा निष्पक्ष भाव दर्शाने के इरादे से सुबह का पढ़ा अखबार लिये बैठे थे।

सुनीला ने नीरस और कडुआहट भरी आवाज़ में कहा, “ये तो मान लिया कि शादी करने के लिए लड़का तुमने स्वयं ही तय कर लिया है। तो शादी करने के लिए कुछ पैसे इकट्ठा किये हैं?"।

ब्रतती पाँव से सिर तक जैसे आग की चपेट में आ गयी। इच्छा हुई चिल्ला कर कहे, न्यूनतम हाथ खर्चे का रुपया रखकर पाई-पाई तो तुम्हारे हाथ में रख देती हूँ माँ। क्या तुम यह बात जानती नहीं हो?

परन्तु उसने कुछ नहीं कहा।

उसने भी नीरस स्वर में कहा, “शहनाई बजाकर शादी की व्यवस्था तो हो नहीं रही है। और जो रजिस्ट्री ऑफ़िस का खर्च होगा उसकी चिन्ता तुम्हें करने की ज़रूरत नहीं।"

"रजिस्ट्री विवाह?'

अब चाचा बोले, “दूसरी जाति का है क्या?”

“यह सब मैं नहीं जानती हूँ। यही तय हुआ है।"

अब चाचा खुश होकर बोले, “वाह ! घर का यह पहला काम है, शादी का कुछ भी नहीं होगा? बच्चे दोनों तो दीदी की शादी की खबर सुनकर नाच रहे हैं।"

सहसा ब्रतती हँसने लगी।

उसके बाद बोली, “इसमें बाधा क्या है? नाचने में तो पैसा खर्च होता नहीं है।

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