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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4099
आईएसबीएन :000

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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...

दंभ की एक दुर्बलता


यह कोई आवश्यक नहीं है कि दंभ अभी उच्च वर्ग के लोगों में ही पाया जाए। दंभ का दुर्गुण हर वर्ग और हर स्थिति के व्यक्तियों में उत्पन्न हो सकता है।

यह घटना बहुश्रुत है कि प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात के पास एक बार कोई व्यक्ति फटे-पुराने कपड़े पहन कर आया। उसके शरीर पर तार-तार कपड़े थे, फिर भी उसकी चाल-ढाल, बात करने का अंदाज और मुखमुद्रा में एक दर्प टपकता था। सुकरात से आकर उसने कुछ अटपटे प्रश्न किये और कहा–'महात्मन् ! मैं इसके उत्तर चाहता हूँ।'

प्रश्न करने और उत्तर पूछने के बाद उस व्यक्ति ने सकरात की ओर इस प्रकार देखा जैसे कोई विद्वान अपनी तुलना में कम जानकार ज्ञानी से प्रश्न करता है। अंतर्दृष्टि संपन्न सुकरात ने उस व्यक्ति के मनोगत भावों को जान लिया और पूछा-'मित्र, तुम इन प्रश्नों का उत्तर किसलिए जानना चाहते हो।'

'यह तो आप जानते ही होंगे। लोग आपके पास किस आशय से आते हैं'-स्पष्ट था कि वह जिज्ञासा का समाधान करना व्यक्त कर रहा था, परंतु अहंकार के मद में उन्मत्त व्यक्ति अपना मंतव्य सीधे-सीधे व्यक्त करने से कतराता है। सुकरात जानते थे कि इस व्यक्ति को उत्तर देकर व्यर्थ के बाद-विवाद में उलझना पड़ेगा। अत: उन्होंने कहा-मित्र, मेरे पास तो लोग जिज्ञासाएँ लेकर आते हैं और मैं उनका शक्ति भर समाधान करता हूँ, पर तुम तो जिज्ञासा से नहीं आये हो, क्योंकि तुम्हारे फटे कपड़ों के प्रत्येक छिद्र में से दांभिकता झांक रही है।

वस्तुतः वह व्यक्ति दंभी था और साथ ही साथ अल्पज्ञ भी। अल्पज्ञ व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान को लेकर अपने सभी साथियों पर रौब गालिब करने का अवसर ढूँढ़ता रहता है। जहाँ तक ज्ञानार्जन का प्रश्न है, अपनी अल्पज्ञता का आभास और विशेष ज्ञान प्राप्ति का प्रयास एक उचित उपाय है। परंतु कुठित महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति अपने थोड़े से ज्ञान को लेकर ही 'चुहिया को चिंदा मिल गया तो मजाज खाना खोल दिया' वाली कहावत चरितार्थ करने लगते हैं।

नैपोलियन भी महत्त्वाकांक्षी युवक था और उसने अपनी उस तृषा को तृप्त करने, यश-कीर्ति की पताका लहराने के लिए प्रथमतः लेखक बनने का प्रयास किया था। लेखक बनने के लिए उसने रूसी और ऐल्बे रेनाल की कृतियों का स्वाध्याय किया। फिर लिख डाली आनन फानन में एक पुस्तक–कर्सिका का इतिहास और उस ऐल्बे रेनाल के पास भेज दिया।

पढ़कर रेनाल ने लिखा-'और गहरी खोज कर दुबारा लिखने का प्रयत्न करो।'

बड़ी झुंझलाहट हुई नेपोलियन को। उसने दुबारा एक निबंध लिखा-फिर निराशा, तीसरे प्रयास में भी असफलता और इन तीन विफलताओं ने ही उसे तोड़कर रख दिया। अधीर व्यक्ति मिनटों में आम और घंटों में जाम लगाना और उगाना चाहते हैं। साहित्य क्षेत्र में मिली प्रारंभिक असफलताओं ने नेपोलियन की राह ही बदल दी और वह बन गया युद्धोन्मादी–विश्व विजय का स्वप्नद्रष्टा। द्वंद्व, युद्ध, मारकाट, दमन, विरोधी शासकों का पतन और चीख पुकार ही उसका जीवन मार्ग बन गयी। न तो नैपोलियन अपने विजित प्रदेशों पर सदैव शासन कर सका। वह वीर था, योद्धा था, साहसी था; यह ठीक है। ये गुण अनुकरणीय हैं, परंतु उसकी प्रवृत्ति विध्वंसात्मक थी। इसलिये जितने उसके प्रशंसक हैं, उनसे भी कहीं ज्यादा उसके आलोचक मिलते हैं।

महत्त्वाकांक्षा कोई बुरी चीज नहीं। बुरी है उसकी विपरीत दिशा। इतिहास के कुछ गिने-चुने व्यक्ति ही नहीं, सर्व साधारण में भी बड़प्पन की कुंठित इच्छा पूरी करने के लिए लोग ऊल-जलूल दावतें करते रहते हैं। महत्ता और सम्मान प्राप्त करने के लिए अनपढ़ और गँवार लोग जेवरों, कीमती कपड़ों में अपनी कमाई झोंकते दिखाई देते हैं। धनवान स्त्रियाँ अपने शरीर पर रौप्य और स्वर्णाभूषण लादे रहती हैं। युवक-युवतियाँ अपने अभिभावकों की कमाई को तरह-तरह की पोशाकें बनाने और फैशन करने में उजाड़ते रहते हैं। आखिर इन सबका क्या अर्थ है और क्या उद्देश्य ? यही न कि हम औरों से अच्छे लगें। दर्प न तो उसका कोई हित है और न उसके मित्र और सहयोगी ही उससे प्रभावित होते हैं।

महत्त्वाकांक्षा के कुंठाग्रस्त होने का कारण होता हैसृजनात्मक दृष्टिकोण का अभाव। लगभग आठ-नौ दशाब्दियों पूर्व जर्मनी के एक निर्धन परिवार में एक छोटा सा लड़का था, नाटे कद का और दुर्बल। घर के लोगों से लेकर 'बाहर' के हमजोलियों तक उसे चिढ़ाया करते, उसका मजाक बनाते रहते। यहाँ तक कि उसके माता-पिता तक ने उसे प्रताड़ित किया और उसका बचपन इन कारणों से बड़ा घुटा-घुटा व्यतीत हुआ। वस्तुतः तो वह प्रतिभाशाली और महत्त्वाकांक्षी था। मिलना चाहिए था उसे प्रोत्साहन और मार्गदर्शन जबकि मिली उपेक्षा और प्रताड़ना। फिर भी वह सोचता रहा कि-"मैं बड़ा आदमी बनूँगा, महान् बनूँगा। कोई मुझे छोटा न समझे। दीन हीन और नगण्य न माने। इसके लिए मैं प्रयत्न करूँगा...प्रबल प्रयत्न करूँगा।"

और उसने प्रयत्न-साधना के लिये सैनिक क्षेत्र का चुनाव किया। उसके मन में बड़प्पन और विजयकांक्षा उत्तरोत्तर बढ़ती रही। उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण उसमें सृजनात्मक दृष्टिकोण का अभाव ही रहा, फलतः उसकी दांभिकता भी बढ़ती रही और शक्ति भी। एक दिन यही व्यक्ति जर्मनी का प्रसिद्ध डिक्टेटर और दो-दो विश्व युद्ध का जनक हिटलर बना। उसके पास प्रतिभा थी, शक्ति थी और उनसे उसने सारे विश्व को चमत्कृत भी किया, पर कुंठाग्रस्त विध्वंसात्मक महत्त्वाकांक्षाओं के कारण वह विनाश की ओर ही अग्रसर हुई। वियना की गलियों में सिर पर गंदगी की टोकरियाँ ढोने वाला यह साधारण मजदूर एक दिन बड़ी बुलंदगी के साथ कहने लगा-मेरा जन्म शासन करने के लिए हुआ है। अपनी कुंठाओं का प्रतिशोध पूरा करने के लिए उसने करीब नब्बे हजार निरपराध प्राणियों को यंत्रणा गृह में मौत के घाट उतार दिया। जब सभी लोग इस दौड़ में शामिल होते हैं तो बड़प्पन की क्या पहचान ?

मृत्यु भोज, ब्याह-शादियों और अन्य पारिवारिक आयोजनों में लोग अनाप-शनाप खर्च कर अपनी शान जताते हैं। इसमें भी कोई शान है ? लाखों रुपये खर्च कर बड़ी धूमधाम से जितना बड़ा आयोजन किया जाए परंतु उनकी स्मृतियाँ चिरस्थायी नहीं रहतीं। लोग थोड़े ही दिनों में उन बातों को भूल जाते हैं। यदि दो-चार दिनों बाद ही उससे इक्कीस आयोजन कहीं हुआ तो उलटे सारी शान मिट्टी में मिल जाती है। न भी हो तो अपनी सामर्थ्य से अधिक खर्च कर अपना बड़प्पन बघारना कोई बुद्धिमानी नहीं है। भला इतनी कीमत पर दो-चार दिन के लिए चर्चित बन गये तो क्या बहादुरी है ? यह बात भी नहीं है कि लोग इस तथ्य से अनभिज्ञ हों। पर बड़प्पन का व्यामोह और कुंठाग्रस्त अहं किसी भी कीमत पर अपना अस्तित्व मिथ्या आधारों पर स्थापित करने के लिए प्रयत्न करता है।

इस प्रकार के बड़प्पन को हिटलर और मुसोलिनी से किसी भी रूप में कम नहीं कहा जा सकता। फर्क इतना है कि हिटलर और मुसोलिनी को व्यापक क्षेत्र मिला था और ऐसे व्यक्तियों को सीमित क्षेत्र मिलता है। हिटलर, मुसोलिनी ने नरसंहार किया था, तो ऐसे व्यक्ति धन संहार करते हैं। संहार और विध्वंस दोनों ही स्थानों पर हैं, अंतर केवल सामर्थ्य और क्षेत्र का है।

तो महत्त्वाकांक्षा की उचित कसौटी क्या है ? स्पष्ट है-सृजनात्मकता और उपयोगिता। सृजन का अर्थ ही उपयोगिता है। बड़ा ही बनना है तो सत्कार्यों में-पुण्य प्रवृत्तियों में अपनी शक्ति और सामर्थ्य का व्यय करना चाहिए। अर्जन करना है तो भले-बुरे सभी तरीके अपना कर धनवान् बनने की अपेक्षा गुणवान्, परोपकारी और सेवाभावी बनना अधिक सहज है तथा अधिक लाभदायक भी। इस मार्ग से प्राप्त की गयी प्रशंसा और कीर्ति चिरस्थायी तथा अमर होती है। बुद्ध और महावीर से लेकर गाँधी, नेहरू, लिंकन, वाशिंगटन, लेनिन, पटेल आदि महामानवों ने इसी मार्ग का वरण किया है और प्रत्येक महत्त्वाकांक्षी को करना भी चाहिए।

दंभ का विकृत महत्त्वाकांक्षा का दुर्गुण न केवल उसी व्यक्ति के लिए वरन् समाज के लिए भी कितना विघातक सिद्ध हो सकता है। इसके लिए उदाहरण सर्वत्र सब कालों और देशों में देखे जा सकते हैं। मानसिक दुर्बलता का प्रकार चाहे जो हो, भले वह चिंता हो या खिन्नता, सनकीपन हो अथवा दंभ मस्तिष्कीय क्षमताओं को लकवाग्रस्त करने का कारण ही बनाते हैं। इनसे दूर रहा जा सके, इनसे बचा जा सके तो मस्तिष्कीय क्षमता का एक बड़ा अंश नष्ट होने से रोका जा सकता है।

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