लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4099
आईएसबीएन :000

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

17 पाठक हैं

शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...

अपने आप का तिरस्कार न कीजिए


तिरस्कार किसी दूसरे के साथ का व्यवहार न किया जाए गया-गुजरा, अशक्त, अयोग्य और पिछड़े हुए स्तर का हो तो वह निश्चय ही नाराज होगा और ऐसी अभिव्यक्ति को अपना अपमान समझेगा। यह उचित भी है। असत्य सम्मान मानवी अंतःकरण की एक स्वाभाविक वृत्ति है। अपना गौरव और वर्चस्व सिद्ध करने और सम्मान पाने की इच्छा से ही लोग बहुत से सही-गलत काम करते हैं। पेट भरने में तो थोड़ा सा समय-श्रम ही पर्याप्त होता है। अधिकतर समय और चिंतन तो बड़प्पन पाने के साधन संग्रह करने और इस तरह का ठाट-बाट रोपने में ही खर्च होता रहता है। पेट की भूख और यौन लिप्सा के बाद सबसे प्रबल आकांक्षा बड़प्पन पाने की है। कई बार तो वह इतनी उग्र होती है कि आदमी उसके लिए भयंकर खतरे उठाने को भी तैयार हो जाता है।

इतने पर भी कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो अपने आप अपना तिरस्कार स्वयं करते रहते हैं और उसके अभ्यस्त बन जाते हैं। दब्बूपन उनका स्वभाव बन जाता है। सही, खरी, उचित और सामान्य बात भी किसी के सामने नहीं कह पाते। मुँह खोलने में उन्हें बहुत डर लगता है और यह भय बसा रहता है कि वह न जाने क्या समझ बैठे, रुष्ट न हो जाए, झिड़क न दे। वस्तुतः यदि वैसा भी हो जाए तो भी उससे कोई बड़ी हानि नहीं हो सकती, किंतु दब्बू आदमी अपनी बड़ी से बड़ी हानि करके भी इतना साहस नहीं जुटा पाता कि सीधी सी बात को सरल स्वाभाविक रीति से दूसरे के सामने रखकर अपना मत व्यक्त कर दें और गलत फहमी के जो कारण-अकारण, मतिभ्रम, घुटन अथवा खाई उत्पन्न कर रहे हैं, उनका निराकरण कर दे। साहस की कमी ऐसे व्यक्तियों को दयनीय स्थिति में डाले रहती है।

बचपन में प्रेम और सम्मान का न मिलना, उपेक्षा उपहास तथा अभावग्रस्त स्थिति में समय गुजारते रहने वाले बच्चे बड़े होने पर प्रायः आत्महीनता के शिकार बन जाते हैं। बीमार, अपंग, मंदबुद्धि बच्चे भी बार-बार डाँट-डपट सुनते रहते हैं। फलतः उनका मन यह मान बैठता है कि उनकी स्थिति दूसरों की अपेक्षा है ही गई गुजरी। उनका भाग्य कुछ ऐसा ही बना है। पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों के लोग तथा महिलाएँ आरंभ में ही घटिया समझी जाने की-उपेक्षित स्थिति में रहने के कारण. अपने आप को हेय स्थिति का स्वयं भी मान बैठती हैं और उसी स्तर का अपने को समझते हुए सोचने का ढंग ऐसा बना लेते हैं, मानो वे बने ही घटिया मिट्टी से हैं। इस मान्यता के कारण दब्बूपन उनकी प्रत्येक क्रिया से टपकता रहता है। दूसरों के सामने वे अपने आपको ठीक तरह व्यक्त नहीं कर सकते, यहाँ तक कि खुले मन से हँस-बोल भी नहीं सकते।

कुछ लोग किसी बाहरी दबाव या अभाव से नहीं, अपनी दब्बू प्रकृति के कारण ही अपने को हेय स्थिति में डाल लेते हैं। वे दूसरों के बड़प्पन और अपने हेय होने की बात को अकारण ही बढ़ा-चढ़ा कर मान बैठते हैं और बहुत ऊँची-नीची खाई खोद लेते हैं।

हीनताग्रस्त व्यक्ति को सहज ही पहचाना जा सकता है, वह आलसी, असंतुष्ट, दब्बू, चापलूस तथा बात-बात पर रूठने वाला होगा। जरूरत से ज्यादा नम्रता प्रदर्शित करता है। उससे कोई भी बेगार ले सकता है, उधार माँग सकता है, ठग सकता है। मन में वैसा न करने की बात रहते हुए भी इतनी इनकार करने की हिम्मत नहीं, तो सामने वाले का आग्रह टालते नहीं बनता। ऐसे व्यक्ति किसी मिलन गोष्ठी में एक कोने में सहमे-सकुचे बैठे होंगे, ताकि कोई उनसे कुछ पूछ न बैठे; कुशल प्रश्नों का उत्तर देना तक उन्हें भारी पड़ता है। ऐसे लोग आये दिन ठगे जाते हैं, उनसे कोई भी बेगार लेता है और काठ का उल्लू समझता है। लाभ उठाने वाले कुछ अहसान भी नहीं मानते, क्योंकि वे समझते हैं कि जो पाया-कमाया है वह दब्बू आदमी की दुर्बलता का चतुरतापूर्वक लाभ उठा लेना भर था, इसमें ठगे जाने वाले की कोई उदारता थोड़े ही थी।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त २२ मनोविज्ञानवेत्ताओं के एक आयोग को चिंता के कारणों का पता लगाने का काम सौंपा था। उस दल ने इस मर्ज के हजारों मरीजों की कुरेदबीन करने पर यह पाया कि ऐसे लोग वस्तुतः पहले सिरे के डरपोक होते हैं। भूत और सॉप का न सही, भविष्य की आशंकाओं का डर उन्हें निरंतर सताता रहता है। इसके अतिरिक्त वे अपनी वर्तमान स्थिति को अपर्याप्त-असंतोषजनक समझते रहते हैं। यों निर्वाह में कठिनाई उत्पन्न करने वाला अभाव इनमें से किसी बिरले को ही होता है, आयोग ने यह भी बताया है कि भय एक संक्रामक रोग है, वह छूत की बीमारी की तरह साथ रहने वाले पर भी असर करता है। छोटा बालक जो अभी संसार की परिस्थितियों के बारे में कुछ भी नहीं समझता, माता को डरी हुई देखकर स्वयं भी रोने लगता है। उसे डरे हुए की दयनीय स्थिति को देखकर स्वयं डर लगता है।

कंधा झुकाये हए, जमीन में आँखें गाड़े हुए कुछ लोग डरे सहमे लोगों की आँखों से अपने को बचाते हुए सड़क पर चलते दिखाई पडेंगे, उनके पैर डगमगाने से लगेंगे। सीधी लाइन चलना उनसे बन नहीं पड़ेगा। साँप की तरह टेढ़े-तिरछे चलेंगे, पैर एकदूसरे में लिपटते से दिखाई पड़ेंगे। इसके विपरीत कुछ लोग सीना ताने फौजियों जैसे कदम मिलाकर सीधी लाइन चल रहे होंगे। चेहरे पर विश्वास भरी मुस्कान दीख रही होगी और आँखों से चमक निकलती दिखाई पड़ेगी। यह अंतर शरीर की स्थिति से नहीं मानसिक स्तर से संबंध रखता है। जिन पर आत्महीनता सवार है वे न केवल सड़क पर चलते हुए वरन् हर कार्य में अपनी दयनीय दुर्बलता व्यक्त कर रहे होंगे। जबकि आत्म विश्वासी व्यक्ति की तेजस्विता उनके हर क्रियाकलाप से हर भाव भंगिमा से टपक रही होगी।

अत्यधिक हीनता ग्रस्त व्यक्ति उसके भार से दब जाता है, हिम्मत खो बैठता है और उज्ज्वल भविष्य की आशा छोड़कर हताश रहने लगता है। अपनी क्षमता पर अविश्वास करने वाला एक प्रकार से हाथ-पाँव रहते हुए अपंग और बुद्धि रहते हुए भी संशय ग्रस्त रहता है। वह करने की तो बहुत कुछ सोचता है, पर साहस के अभाव में कुछ कर नहीं पाता। करता है तो फल पकने तक किसी वृक्ष को सींचते रहने के लिए जितने धैर्य की आवश्यकता पड़ती है, उतनी जुटा नहीं पाता। अस्तु अधिकांश कार्यों में असफल रहता है और हर असफलता उसे और भी अधिक निरुत्साहित करती चली जाती है।

दब्बूपन के अतिरिक्त विकृत आत्महीनता उद्धत बनकर उभरती है। वह ऐसे कृत्य करने को उकसाती है, जिससे लोग उसे भी असाधारण समझें। विधिवत् असाधारण बनने के लिए तो मनुष्य को व्यक्ति का समग्र निर्माण करना पड़ता है और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने का उदात्त साहस जुटाना पड़ता है। पर उद्धत काम करने के लिए उच्छृखलता अपनाने और आतंकवादी रास्ते पकड़ने से काम चल जाता है। यों आरंभ में होता तो यह भी कठिन है, पर उसी स्तर के आवारा लोगों का साथ ढूँढ लेने में वह अभ्यास जल्दी ही हो जाता है और गुण्डागर्दी से दूसरों को आतंकित करने की सफलता पाकर आत्मगौरव की भूख बुझा ली जाती है। साथ ही आर्थिक तथा दूसरे लाभ भी कमा लिये जाते हैं। सस्ती तरकीब से दुहरा लाभ पाने से उत्साहित होकर वे इस प्रकार की गतिविधियाँ एक पेशे के रूप में अपना लेते हैं। अपराधों में संलग्न उच्छृखल गुण्डागर्दी अपनाने वाले व्यक्ति बहुत करके आत्महीनता की ग्रंथि से ग्रसित ही होते हैं। निजी जीवन में थोड़ी सी भी विपत्ति आने पर उन्हें बेतरह रोते-कलपते पाया जाता है।

अधिक बन ठनकर रहने वाले और साज श्रृंगार करने वाले नर-नारियों में अधिकांश ऐसे होते हैं, जो अपने आपको तिरस्कृत, उपेक्षित एवं हेय स्तर का मानते हैं। वे श्रृंगार साधनों को अपना कर तड़क भड़क के कपड़े और चमचम करते जेवर पहन कर दूसरों से अधिक आकर्षक बनने का प्रयत्न करते हैं, ताकि लोग उन्हें असाधारण समझें। अमीरी का ढोंग रचते हए, पैसे का अपव्यय करते हुए कई व्यक्ति अपने परिचितों पर छाप छोड़ना चाहते हैं कि वे बड़े आदमी हैं और बड़े आदमियों की तरह चाहे जितना पैसा फूंक सकने में समर्थ हैं। ऐसे आदमी कम कीमत की मजबूत चीजें खरीदने की अपेक्षा महँगी और कमजोर चीजें खरीदते हैं, इस खरीद में उनका प्रयोजन दूसरों पर अपनी रुचि एवं कलाकारिता की छाप छोड़कर बड़प्पन का आतंक जमाना भर होता है। ऐसे लोग सदा ऋणी बने रहते हैं और आर्थिक तंगी भुगतते हैं। लाभ इतना ही होता है कि उनकी आत्महीनता को कुछ समय के लिए राहत मिल जाती है।

अमेरिका में १० हजार पीछे एक व्यक्ति हर साल आत्महत्या करके मरता है। किसी-किसी वर्ष तो यह अनुपात बहुत अधिक बढ़ जाता है। एक साल तो यह संख्या १५४०० पहुँच गई थी। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक संख्या में आत्महत्या करती हैं।

लोग क्यों आत्मघात करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में दरिद्रता, बेकारी, शारीरिक कष्ट, पारिवारिक कलह, असफल प्रेम, अपमान, निराशा, विपत्ति की आशंका आदि कई कारण गिनाये जा सकते हैं। पर सबसे बड़ा कारण होता है मानसिक असंतुलन, जिसके कारण लोग छोटी-छोटी कठिनाइयों या असफलताओं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर मान लेते हैं और उस भयंकरता से बचाव का कोई उपाय न सूझने पर किंकर्तव्यविमूढ हुआ व्यक्ति अपने ऊपर ही आक्रमण कर बैठता है और दूसरों को मार डालने का साहस न जुटा सकने पर अपने आप का ही वध कर डालता है।

आत्महत्या की बढ़ती हुई घटनाओं का कारण मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में अपने आपके प्रति अविश्वास, दुर्बलता और हीनता की भावनाओं की जड़ें जम जाना है। यह स्थिति किसी भी व्यक्ति को हानि और हेय बना सकते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book