आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटरश्रीराम शर्मा आचार्य
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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...
हीन-हेय-दयनीय न बनें
अपने आपको दसरों से हेय या हीन मानने की मानसिक ग्रंथि किसी सुयोग्य व्यक्ति
को भी दयनीय पिछड़ेपन में जकड़े रहती है। वह अपनी योग्यता पर विश्वास नहीं
करता। दूसरों को अपने से किसी न किसी बात में अधिक समर्थ देखता है और उसकी
तुलना में अपने को गया-गुजरा समझ लेता है। झेंप इसी का नाम है। अनेकों दब्बू,
झेंपू, संकोची कहलाने वाले व्यक्ति कभी-कभी अपनी दुर्बलता को नम्रता,
विनयशीलता, सज्जनता आदि के लबादे से ढक कर छिपाने का उपहासास्पद प्रयत्न भी
करते देखे गये हैं। पर बात छिपती नहीं है। नम्र या सज्जन को दूसरों के सम्मान
की रक्षा करते हुए अपने मन की बात मधुर शब्दों में रखते हुए तनिक भी कठिनाई
अनुभव नहीं होती, जबकि आत्म हीनता से ग्रसित व्यक्ति से कुछ कहते ही नहीं
बनता-उससे उचित के प्रतिपादन और अनुचित से असहमत होने की बात कहते ही नहीं
आधी अधूरी, लँगड़ी-लड़खड़ाती बातें ही मुंह से निकलती हैं। उसमें अस्पष्टता
रहने के कारण दूसरे लोग उसका असली मंतव्य नहीं समझ पाते और कुछ का कुछ अर्थ
लगाकर उसी कथन को उलटे प्रहार का हथियार बनाते हैं। ऐसी दशा में वह डरकर इस
नतीजे पर पहुँचता है कि कहने की अपेक्षा न कहना अधिक उपयुक्त है।
आत्महीनता मनुष्य की सारी बुद्धिमत्ता, योग्यता एवं प्रतिभा पर पानी फेर देती
है। अपने को व्यक्त न कर सकने के कारण वह दूसरों की दृष्टि में असमर्थ एवं
मूर्ख सिद्ध होता है। जब उसकी क्षमता पर किसी को विश्वास ही नहीं तो फिर उसे
कुछ उत्तरदायित्व सौंपने का बढ़ावा देने के लिए कोई क्यों तैयार होगा ?
उपेक्षा और अवमानना ही उसे मिलती है। इस व्यवहार से उसकी हीनता की ग्रंथि और
भी अधिक कसती-जकड़ती चली जाती है। अंततः वह आत्ममान्यता की परिपक्वता से
सचमुच ही बुद्ध एवं अयोग्य बन जाता है, जबकि वस्तुतः उसमें किसी से कम
प्रतिभा थी नहीं।
आत्महीनता की घुटन अपने लिये दूसरा रास्ता निकालती है-दूसरों पर दुर्भावना
आरोपण करने का। दूसरे उससे द्वेष रखते हैं-उसके साथ अन्याय, पक्षपात करते
हैं। यह मान्यता जड़ जमाती है और जिनसे भी उसका वास्ता पड़ता है, उन सबको
अपने विद्वेषियों की श्रेणी में गिन लेता है। दूसरे विद्वेष क्यों करते हैं ?
इसका कारण ढूँढ़ने में किसी की बुद्धि को कोई कठिनाई नहीं हो सकती। इसके लिए
पिछले किसी भी सामान्य व्यवहार पर दुर्भावनापूर्ण आवरण चढ़ाकर इस तरह
व्याख्या की जा सकती है, मानो सामने वाले सचमुच ही विद्वेषी हैं। किसी भी
निर्दोष व्यक्ति या सहज-स्वाभाविक घटना को आशंका और संदेहों के रंग में रंग
कर अपने इच्छित स्तर का देखा जा सकता है। मित्र या शत्रु के रूप में किसी भी
उदासीन व्यक्ति को हम देख सकते हैं और वह सचमुच वैसा ही प्रतीत होगा। उसमें
सामान्य वार्तालाप एवं क्रियाकलाप की दुर्भावनापूर्ण व्याख्या करना अति सरल
है। यों किसी के प्रति अंधप्रेम हो तो उसे सर्वगुणसंपन्न और अत्यंत
स्नेहसिक्त मान बैठना भी कठिन नहीं है, पर ऐसा कम ही होता है। आत्महीनता की
ग्रंथि प्रायः द्वेष-दुर्भावों का ही आरोपण अधिक लोगों पर करती है। कुचले हुए
स्नेह-सद्भावों को कभी किसी से थोड़ा आश्रय मिल जाय तो ऐसे व्यक्ति उस पर
लट्र भी हो जाते हैं और उस प्रेमावेश में अपना सब कुछ लुटा देने में भी नहीं
चूकते। यह दोनों ही पक्ष हानिकारक हैं। इसमें अकारण शत्रुता-मित्रता का आरोपण
होता है और संतुलित व्यवहार से परस्पर सहयोग का जो सही क्रम बन सकता था उसका
स्वरूप ही नहीं बन पाता।
आत्महीनता का कभी-कभी उद्धत आचरण के रूप में विस्फोट होता है। उपेक्षा-अवज्ञा
सहते-सहते जब अंत.चेतना ऊब जाती है तो ऐसे छद्मवेष बनाकर प्रकट होती है जिसके
कारण लोगों का ध्यान आकर्षित हो, सहानुभूति मिले, अथवा वे आतंक ग्रस्त होकर
उसके महत्त्व को समझें। तोड़-फोड़, आक्रोश करना, रोना, अनशन जैसे विचित्र
व्यवहार नगण्य के कारणों के बहाने प्रस्तुत करते हैं। कभी अति परिश्रम करते
या अत्यंत सद्भावना प्रकट करते हुए भी उन्हें देखा जा सकता है। भूत-प्रेत ऐसे
ही लोगों को आते हैं। तरह-तरह के सपने सुनाने और दिव्य अनुभूतियाँ सुनाने में
भी यही वर्ग अग्रणी रहता है। श्रृंगार और फैशन बताना अथवा अत्यंत अस्त-व्यस्त
रहना यह दोनों ही हीनता की निशानियाँ हैं। दोनों ही स्थितियों में दूसरों की
चर्चा करने का अवसर मिलता है। बात भली कही या बुरी–प्रशंसा हुई या निंदा मान
बढ़ा या घटा-हानि उठानी पड़ी या लाभ-इन सबसे उतना वास्ता नहीं होता जितना कि
अपनी चर्चा सुनकर अहं को थोड़ी राहत मिलने से संतोष होता है। दान-पुण्य,
तीर्थ यात्रा, व्रत-मौन जैसे धर्म कृत्य भी ऐसे ही लोग अधिक करते हैं।
धर्मात्मा के रूप में आत्म विज्ञापन करके दूसरों से प्रशंसा अर्जित करने का
भाव इन लोगों में अत्यधिक उग्र होता है। वास्तविक धर्मबुद्धि से विवेकपूर्वक
सत्प्रयोजन के लिए सत्पात्रों को दान देते कोई विरले ही देखे जाते हैं।
अधिकतर तो पैसा कुपात्रों में ही लुटता है और वह भी वहाँ-जहाँ लोगों में उस
पुण्य की चर्चा होने का अवसर मिले। आत्मविज्ञप्ति द्वारा थोड़ा संतोष पाने का
भी यह तरीका किसी कदर अच्छा इसलिए है कि उसमें सदुद्देश्य की बात तो आगे रहती
है, पीछे दूरवर्ती परिणाम उसका कुछ भी होता रहे।
दूसरों के अनुचित व्यवहार ऐसे ही लोगों के साथ अधिक होते हैं। संकोची स्वभाव
के कारण कहना, करना सब कुछ डरते-डरते होता है। उसकी गति धीमी होती है। क्रिया
का परिणाम कम और समय अधिक लगता है। आशंकामय एवं असमंजस की स्थिति में ऐसा
होना स्वाभाविक भी है। ऐसे लोगों के काम देर में, थोड़े तो होते ही हैं। जो
होते हैं, वे भी आधे अधूरे लँगड़े-कुबड़े होते हैं। अस्तु उपहास होता
हैं—डाँट पड़ती हैं और खीज में अप्रिय व्यवहार भी होता रहता है। उसमें
शाब्दिक अथवा दूसरी तरह की प्रताड़ना स्पष्ट भरी रहती है। इसकी प्रतिक्रिया
रोष के रूप में होनी स्वाभाविक है, पर उसके प्रतिकार में कुछ करते भी नहीं
बनता। घुटन दूनी बढ़ती है। यह रोष कभी-कभी विस्फोट बनकर भी फूटता है। कई
स्त्रियाँ अपने छोटे बच्चों को बेतरह पीटती देखी जाती हैं, इसे आत्महीनताजन्य
घुटन का विस्फोट ही कहा जा सकता है।
कुरूपता, दरिद्रता, मंदबुद्धि, जाति-पाँति, कोई शारीरिक कमी, प्रताड़ना, किसी
अपराध में पकड़े जाना आदि कारणों से दूसरों की दृष्टि में उपहासास्पद होने की
कल्पना करके कितने ही व्यक्ति आत्महीनता के शिकार हो जाते हैं। दूसरे लोग जब
उपहास या अवमानना करते हैं तो उनकी अंतःचेतना अपने को हेय या हीन मानती चली
है और निरंतर की मान्यता धीरे-धीरे परिपक्व होकर व्यक्तित्व को सचमुच उसी
स्तर का बना देती है। ऐसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं ऐसे विचार एवं कर्म छलने
लगते हैं, जो हेय स्तर के लोगों के होते हैं। लड़कियों को आरंभ से ही लड़कों
की तुलना में हेय-पराये घर का कूड़ा-आजीवन बंधनग्रस्त रहने की बात मन में
बिठाई जाती रहती है, अस्तु वे अपनी सहज स्थिति वैसी ही स्वीकार कर लेती हैं।
वस्तुतः लड़के और लड़की की संरचना में कोई विशेष अंतर नहीं है, पर एक का उभरा
हुआ और दूसरे का दबा हुआ व्यक्तित्व उन परिस्थितियों का परिणाम है, जिसने
लड़की को आत्महीनता की ग्रंथि में जकड़ कर मजबूती के साथ बाँध दिया है।
अपने आपको पापी, अभिशप्त, दुर्भाग्यग्रस्त, ग्रहदशा पीड़ित मान लेने से भी
व्यक्तित्व दब जाता है। दूसरों की जो उपलब्धि है-वह हमें नहीं मिला, दूसरों
की तुलना में हमारे सामने कठिनाइयाँ अधिक हैं। अपना भविष्य अमुक कारणों से
अंधकारमय है, ऐसा सोचते रहने वाले एक प्रकार से अपना गौरव, पौरुष और साहस खो
बैठते हैं। भीतर से टूटे और हारे हुए मनुष्य भविष्य निर्माण की दिशा में कुछ
सोच भी नहीं पाते-कर तो पायेंगे ही कैसे ? हिन्दू विधवाओं को आमतौर से इसी
वर्ग में गिना जा सकता है।
अपने से ऊँची स्थिति के लोगों के साथ अपनी तुलना करते रहने से सहज ही अपने
दुर्भाग्य पर दुःख होता है। कदाचित् यह तुलना अपने से छोटे लोगों के साथ की
गई होती तो वर्तमान स्थिति को भी सौभाग्यशाली गिना जा सकता था। बड़ों की
तुलना तक पहुँचने के लिए पुरुषार्थ जगता तो भी एक बात थी, पर यदि उससे अपने
को दुर्भाग्यग्रस्त मान लिया गया है तब तो उस चिंतन से अहित ही अहित है।
उत्साह और विनोद की परिस्थितियाँ न मिलने पर-मित्रता, सहानुभूति, प्रशंसा और
प्रोत्साहन न मिलने पर भी मन उदास होता है और थकान अनुभव करता चला जाता है।
नीरस जिंदगी, कोल्हू के बैल की तरह चलने वाला ढर्रा, मनुष्य के विकासोन्मुख
प्रवृत्तियों को कुचल कर रख देता है। ऐसे मनुष्य रोते-चीखते मौत के दिन पूरे
करते रहते हैं, न उनमें आनंद होता न उल्लास। भविष्य की अच्छी आशाएँ गँवा कर
फिर हाथ में रहता ही क्या है ?
वियाना के मनोविज्ञानी डॉ० एल्फर्ड एडलर ने उदास और हतप्रभ लोगों के विश्लेषण
में अधिकतर ऐसे लोग पाये जो स्वार्थरत रहते रहे और आत्मचिंतन के निषेधात्मक
पक्ष में ही उलझे रहे।
अपने आपको स्वस्थ, सुसंपन्न, विद्वान् आदि बनने की बात सोचते. रहने, स्वर्ग,
मुक्ति, सिद्धि आदि की व्यक्तिगत लालसाओं में संलग्न व्यक्ति उस सहज आनंद से
वंचित रह जाते हैं, जो सामाजिक जीवन बिताने वाले एवं सामूहिक चिंतन करने वाले
लोगों को मिलता है। दूसरों के सुख-दुःख में भागीदार होना, उनकी कठिनाइयों को
समझना एवं सहायता करना ऐसा गुण है जिसके कारण व्यक्ति लोकप्रिय बनता है।
स्नेह, सम्मान एवं श्रद्धा-सौजन्य अर्जित करने वाला व्यक्ति-वैभव संपादित
करने में संलग्न, संकीर्ण स्वार्थपरायण व्यक्तियों की तुलना में कहीं अधिक
प्रसन्न रहता है। उसका मनोबल अनायास ही बढ़ता जाता है।
अदक्ष होना कोई प्रकृति प्रदत्त अभिशाप या अभाव नहीं है। हर मनुष्य का
मस्तिष्क. लगभग एक जैसे कणों, कोषों एवं तंतुओं से बना है। मानवी मस्तिष्कों
की संरचना में उतना अंतर नहीं होता जितना कि बौद्धिक दृष्टि से उनमें दिखाई
पड़ता है।
इस अंतर का प्रधान कारण मस्तिष्कीय शक्तियों को अभीष्ट विचारों एवं निर्धारित
कामों पर पूरी तरह केंद्रित करने में शिथिलता बरतना ही कहा जा सकता है। लोग
काम तो करते हैं, पर वह कोल्हू के बैल की तरह-जेल खाने के कैदी की तरह अथवा
मशीनी ढर्रे जैसा होता है। उसमें गहरी दिलचस्पी नहीं ली जाती, यदि ली गयी
होती तो उत्साह उत्पन्न होता, रस आता और तन्मय-तत्परता बरती गई होती। फलतः
वही कार्य जो घटिया स्तर का बनकर रह गया—किसी कुशल कलाकार की कारीगरी बनकर
सामने आता। हर काम यह घोषणा करता है कि उसे किस दिलचस्पी एवं तत्परता के साथ
किया गया है। बारीकी से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्ता ने उसे बेगार
की तरह टाला है या प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पूरी सावधानी के साथ संपन्न
किया है।
हमारे विचार छितराये रहते हैं। कोई बात सोचने की जब आवश्यकता हो तो बहुत
थोड़ी देर-समस्या के एक अंग पर आधे अधूरे मन से ध्यान देते हैं। इतने में ही
मन अपनी सहज संरचना के आधार पर बहुमुखी दिशा में उड़ने लग जाता है। यदि पूरी
दिलचस्पी के साथ प्रस्तुत समस्या पर विचार करने की आदत होती तो उसके प्रत्येक
पहलू पर सोच विचार किया जाता। पक्ष और विपक्ष के तर्क एवं तथ्य सामने लाये
जाते और गुण-अवगुण सोचा जाता। आगत कठिनाईयाँ एवं उनके समाधानों को समझा गया
होता और कई दृष्टियों से गहराई तक वस्तु स्थिति में जाने का प्रयत्न किया गया
होता। इतना मंथन करने के बाद जो निष्कर्ष निकलता, निर्णय किया जाता, निश्चय
ही वह बहुत महत्त्वपूर्ण होता और उस आधार पर कदम उठाना असफलता एवं पश्चात्ताप
का कारण न बनता।
आधी अधूरी बात सोचना, एक पक्ष को ही समग्र मान लेना, विकल्पों और व्यवधानों
को समझना इसलिए संभव नहीं होता कि विचारों की एकाग्रता, समग्रता और गहराई
अभ्यास में नहीं होती। सर्वांगपूर्ण कार्य की तरह समग्र चिंतन भी आवश्यक है।
इसके लिए मानसिक आलस्य को हटाकर वैज्ञानिकों जैसी गहराई में उतरने की आदत को
अभ्यास में सम्मिलित करना होगा। शरीर के आलस्य से काम खराब होते हैं। मन का
आलस्य प्रमाद कहलाता है। बात को गंभीरता से पूरी तरह न सोचना, अधूरे चिंतन को
ही पर्याप्त मान लेना, फूहड़ और अधूरे काम करने की अस्तव्यस्तता जैसी ही
बुराई है।
प्रवीणता प्रकृति प्रदत्त गुण नहीं है, वह अभ्यास की उपलब्धि है।
तन्मयतापूर्वक काम करने वालों के हाथ कुशल कलाकार जैसे प्रवीण होते जाते हैं
और उनका स्तर सदा सराहा जाता है। ठीक इसी प्रकार किसी विचार पर पूरी सावधानी
के साथ ध्यान केंद्रित करना और उसके हर पक्ष पर सतर्कतापूर्वक विचार करना
तात्कालिक समस्या का तो सही समाधान निकालना ही है। साथ ही एक बड़ा लाभ यह
प्रस्तुत करता है कि समग्र चिंतन की आदत उसे बुद्धिमान् बनाती चली जाती है।
कुशाग्र बुद्धि, सूक्ष्म दृष्टि, वस्तुतः समग्र एवं सर्वतोमुखी चिंतन की आदत
की परिपक्वावस्था ही है। पूरा चिंतन करने के अभ्यास को ही दूसरे शब्दों में
दूरदर्शिता, प्रतिभा, संपन्नता, कुशाग्र बुद्धि आदि नामों से पुकारा जा सकता
है। पूरा काम और पूरा विचार करना उस सतर्कता का परिणाम है। जो गहरी दिलचस्पी
होने पर ही विकसित होती है। जिसे अपने कामों को पूरा मनोयोग लगाकर करने की
आदत है, उसकी प्रगति और सफलता असंदिग्ध बन कर ही रहेगी।
आत्महीनता की ग्रंथि से ग्रसित व्यक्ति अपने पर, अपनी योग्यताओं पर विश्वास
करना छोड़ देता है। वह किसी कार्य को पूरा कर सकेगा, इस पर विश्वास नहीं कर
पाता। आत्मविश्वास का अभाव सफलता में सबसे बड़ी बाधा है। अपने आप को हेय एवं
तुच्छ मानना प्रकारांतर से अपने भविष्य को अंधकारमय बना लेने का स्वनिर्मित
प्रयत्न ही कहा जा सकता है।
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