आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटरश्रीराम शर्मा आचार्य
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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...
व्यक्तित्व को इस प्रकार सींचें
आत्महीनता से बचने के लिए स्वयं को प्रोत्साहन देते रहना इस मनोव्याधि की
अचूक औषधि है। पौधे को खाद पानी से सींचा जाता है और व्यक्तित्व को
प्रोत्साहन से। आत्मगौरव का अनुभव किया जाना चाहिए और कराया जाना चाहिए।
गलतियाँ बताना और सुधारना एक बात है और व्यक्तित्व हेय तथा हीन सिद्ध करना
दूसरी। प्रायः लोग एक बड़ी भूल करते हैं कि गलती की भर्त्सना करते हुए,
निराकरण की उपेक्षा रखते हुए ऐसे कदम उठाते हैं जिन्हें आक्रमण की संज्ञा दी
जा सकती है। बच्चों के साथ बड़े कहे जाने वाले अभिभावक लोग भी प्रायः ऐसी ही
भूल जाने अनजाने करते रहते हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व को भारी आघात पहुँचता
है।
किसी गलती की मूर्खता कहा जा सकता है और उसे सुधारने पर बुद्धिमान् कहलाने का
रास्ता बनाया जा सकता है, किंतु किसी को मूर्ख, मंदबुद्धि, असभ्य, बेशऊर आदि
कहते रहने से अनायास ही बड़ों के उस निर्देश-अनुदान को अंतःचेतना स्वीकार
करती चली जाती है और क्रमशः हीनता के परत इतने मजबूत हो जाते हैं कि बच्चा
सचमुच ही मंद बुद्धि, बेशऊर और मूर्ख बन जाता है। व्यक्तित्व की धुरी आत्म
मान्यता है। यदि अपने आपको अयोग्य, अभागा, अविकसित और पिछड़ा हुआ मान लिया
जाए तो फिर समझना चाहिए कि उस मान्यता के इर्द गिर्द ही जीवन-चक्र घूमता
रहेगा। दुर्भाग्यग्रस्तता की स्थिति से मरण पर्यंत पीछा न छूट सकेगा।
लड़कियों और लड़कों की प्रतिभा में अंतर किसी शारीरिक अथवा मानसिक बनावट के
कारण नहीं, वरन उनके साथ होने वाले भेद-भाव पूर्ण व्यवहार के कारण होता है।
बेटे को अधिक लाड़-प्यार और अधिक सुविधा-साधन मिलते हैं और बेटी को डाँट-डपट,
उपेक्षा, अवज्ञा मिलने से लड़की का अंतःकरण यह स्वीकार करता चला जाता है कि
वस्तुतः वह हेय और हीन है। इस हेय मान्यता के कारण वह आजीवन डरी, सहमी, सकुची
और पिछडी स्थिति में रहती है। यह कुसंस्कार बहुत प्रयत्न करने पर भी निकलते
नहीं अधिक प्रयत्न किया जाए तो वे उद्धत प्रदर्शन या उच्छृखल व्यवहार में फूट
पड़ते हैं। महिलाओं का अधिक फैशन बनाना, सजधज दिखाना, उनकी आत्महीनता का
उद्धत प्रदर्शन है। कभी-कभी वे अधिक झगड़ालू, बच्चों को पीटने वाली, रूठने
वाली, आत्महत्या की धमकी देती देखी जाती हैं। उनके इस चण्डी रूप से उनका
उच्छृखल व्यवहार ही दिखता है। वस्तुतः यह आत्महीनता का ही दूसरा रूप है।
अत्यधिक संकोची, बात-बात में रो पड़ने वाली-न हो तो पग-पग पर उफनने वाली सही,
दो परस्पर विरोधी दिशाओं में एक ही प्रवाह फूट पड़ता है।
लड़कों के बारे में भी यही बात है। उन्हें आवश्यक लाड़-प्यार देकर या तो
अहम्मन्यता ग्रसित बना दिया जाता है या फिर मूर्ख-दुष्ट, अभागा, चोर आलसी
कहकर उसके अंतः में यह विश्वास जमा दिया जाता है कि वह हेय स्तर का है,
सामान्य मनुष्य जैसा नहीं वरन उससे गया गुजरा है। प्रभावशाली, बड़े कहलाने
वाले लोग अपनी छाप छोटों पर छोड़ते ही रहते हैं। बालक अपनी हीनता स्वीकार
करता चला जाता है और बड़े होने पर या तो कायर, आलसी, चोर, मंद-बुद्धि रह जाता
है या फिर दुष्ट-दुर्गुणी बनकर उद्धत काम करता हुआ दृष्टिगोचर होता है।
प्रतिभा के विकास में मनुष्य को स्वाभिमानी, आत्मावलंबी तथा आत्मविश्वासी
होना चाहिए और किसी के भी द्वारा थोपे गये आत्महीनता के निर्देशों को
अस्वीकार कर देना चाहिए। गलती ढूँढने, पूछने और सुधारने का प्रयत्न जारी रहना
चाहिए। वस्तुतः अधिक योग्य बनने का रचनात्मक प्रयास और उत्कर्ष का क्रमिक
विकास तो महान् से महान् व्यक्तियों को भी इसी प्रकार अपनाना पड़ा है। प्रगति
का अर्थ ही गलती सुधारने में तीव्रता उत्पन्न होना है। यह क्रम पूछने-बताने
से और भी अधिक सही होता है, पर वह रचनात्मक होना चाहिए। मनुष्य का, मनुष्यता
का मूल्य समझने वाले प्रत्येक विवेकवान् व्यक्ति का दृष्टिकोण यह होना चाहिए
कि किसी के व्यक्तित्व पर आक्रमण न करे। बड़ा साँड़ छोटे बछड़े के पेट में
सींग घुसेड़ सकता है, बड़ा कुत्ता छोटे कुत्ते की गर्दन दाँतों से फफेड़ सकता
है, पर ऐसा व्यवहार मनुष्य को मनुष्य के साथ तो नहीं करना चाहिए। व्यक्तित्व
को छोटा, घटिया, गया बीता बताना, उसके भविष्य को अंधकारमय बताना उतना बुरा
है-जिसे उसके साथ किये गये किसी भी दुर्व्यवहार के समतुल्य माना जा सकता है।
बलवान् दुर्बल को पछाड़ कर उसका कचूमर निकाल सकते हैं, इसी प्रकार
प्रभावशाली, शक्तिसंपन्न व्यक्ति छोटे लोगों को हेय, हीन ठहरा कर उसके मनोबल
को तोड़ सकते हैं। यह बुद्धि एवं प्रतिभा का आक्रमणात्मक दुरुपयोग है।
हमें रचनात्मक सुझाव देने चाहिए। यह काम बुरा हुआ-इसकी उतनी अधिक व्याख्या
करने की जरूरत नहीं है जितनी कि सुधार के लिए जो किया जा सकता है, उसका सुझाव
देने की। सुझाव रचनात्मक होते हैं। उनसे दिशा मिलती है और लाभ होता है, किंतु
भर्त्सना से मन छोटा होता है। तिरस्कार के फलस्वरूप द्वेष-दुर्भाव की खाई
चौड़ी होने के अतिरिक्त और कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। गलती से होने वाली
हानि और सुधार का तरीका अपनाने का लाभ तुलनात्मक रीति से समझाया जा सकता है।
दूसरे के दबाव से, परिस्थितियों से, अपनी आत्म अवज्ञा से आत्महीनता की
मनोवैज्ञानिक ग्रंथि बनती है और उसके कारण व्यक्तित्व बहुत ही दीन और दुर्बल
बन जाता है। ऐसे व्यक्ति दब्बू, संकोची, चापलूस, हाँ में हाँ मिलाने वाले,
असहमति को प्रकट न कर सकने वाले, भीतर ही भीतर खीझे-रूठे रहने वाले होते हैं।
उनसे कोई बेगार ले सकता है, ठग सकता है। साहस के अभाव में वे यह तक प्रकट
नहीं कर सकते कि उनसे जो कुछ कराया जा रहा है, जो वे कर रहे हैं उसमें उनकी
स्वेच्छा नहीं है।
मनोविज्ञानी जे० सी० राबर्टस ने अपनी "दैनिक जीवन में मनोविज्ञान" नामक
पुस्तक में इस बात पर बहुत जोर दिया है कि हर मनुष्य को अपने भीतर से साहस का
उदय करना चाहिए। अपने आप को सबसे बड़ा न सही-कम से कम सबसे अयोग्य मानना तो
बंद कर ही देना चाहिए। परमात्मा ने प्रत्येक व्यक्ति को लगभग समान स्तर की
क्षमता प्रदान की है। सबके भीतर प्रगति के बीज छिपे पड़े हैं और हर कोई अपनी
सामर्थ्य को विकसित करने में समर्थ है। अंतर इतना ही रहता है कि साहसी लोग
अपने को पहचानते हैं अपने ऊपर भरोसा करते हैं और अपनी श्रेष्ठता से साथियों
को प्रभावित करके अच्छा सम्मान, सद्भाव एवं सहयोग संपादित करते हैं। इसके
विपरीत दब्बू लोग यह छाप छोड़ते हैं कि इनसे किसी को कुछ मिलता तो है
नहीं-उलटे सदा भार और सिर दर्द होते रहेंगे। इसलिए इससे तो बचना ही ठीक है।
हर व्यक्ति एक-दूसरे से कुछ चाहता है और इस आशा से मैत्री करता है कि उनके
संपर्क में प्रसन्नता और प्रगति की संभावना बढ़ेगी। जो इस कसौटी पर खरे उतरते
हैं, उनके स्नेही, समर्थक और सहयोगी सहज में ही बढ़ते जाते हैं। इसी संचय से
मनुष्य उन साधनों से संपन्न बनता है जो अंतरंग-बहिरंग की प्रगति का पथ
प्रशस्त करते हैं।
आत्महीनता से ग्रसित व्यक्ति का मित्र वह है, जो सदा उसके गुणों की चर्चा
करे, प्रतिभा को निखारे, प्रशंसा करे और प्रोत्साहन प्रदान करे। साहस की
अभिवृद्धि-धन-संपत्ति, विद्या, रूप-सौंदर्य आदि सभी विभूतियों से बढ़ी-चढी
उपलब्धि है। साहस जीतता है, आत्मबल सबसे बड़ा बल है। आत्मविश्वास और हिम्मत
के साथ जिस दिशा में भी बढ़ा जाएगा, उसी में सफलता मिलती चली जाएगी। यदि यह
तथ्य समझ लिया जाए तो आत्महीनता की निकृष्ट दरिद्रता से पीछा छुड़ाना हर किसी
को प्रथम कर्तव्य प्रतीत होगा।
आत्महीनता की व्यथा से ग्रसित व्यक्तियों को मनःचिकित्सकों का परामर्श है कि
वे उचित और अनुचित का अंतर करना सीखें और इतना साहस जुटायें कि जो सही हैं,
उसी को अपनाने और जो गलत है उससे इंकार करने में दृढ़ता व साहस बरत सके। सहमत
होना और हाँ कहना अच्छी बात है। पर जो उचित नहीं अँचता, उसे अस्वीकार करने की
हिम्मत भी रखनी ही चाहिए।
जन-संपर्क से काम करने की आदत डालना भी इस दृष्टि से एक अच्छा उपचार है। चार
दुकानों पर मोल-भाव करके और घटिया-बढ़िया तलाश करके शाक-भाजी खरीदने का
नुस्खा छोटा होने पर भी इस रोग में बड़े काम का है। अपने हाथों टिकट खरीदने,
सामान बुक कराने, सीट रिजर्व कराने जैसे छोटे काम करने से भी हिम्मत खुलती
है। आदान-प्रदान में वार्तालाप करना आवश्यक हो जाता है। गोष्ठियों और
प्रतियोगिताओं में भाग लेने से भी अपनी अभिव्यक्तता प्रकट करनी पड़ती है। यह
अच्छे अभ्यास हैं।
यह न सोचा जाय कि मैं कुछ नहीं हूँ, वरना यह मानना चाहिए कि मैं भी कुछ हूँ।
विश्व भर में से व्याप्त असीम बुद्धिचेतना और प्रचंड शक्ति-सामर्थ्य का
समुचित अंश सभी में विद्यमान है। अतः न किसी को निराश-हताश होने की आवश्यकता
है और न ही अपने आपको हेय-हीन दुर्बल मानने की। अपने प्रति भरपूर आस्था, अटूट
आत्म-विश्वास जाग्रत् कर मस्तिष्कीय शक्तियों का जगाने व उनका सदुपयोग करने
में ही सर्वविध कल्याण है।
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