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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4099
आईएसबीएन :000

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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...

मस्तिष्क एक जादुई पिटारा


देखने, नापने और तौलने में छोटा-सा लगने वाला मस्तिष्क जादुई क्षमताओं और गतिविधियों से भरा-पूरा है। उसमें प्रायः दस अरब स्नायु कोष हैं। इनमें प्रत्येक की अपनी दुनिया, अपनी विशेषता और अपनी संभावनाएँ हैं। वे प्रायः अपना अभ्यस्त काम निपटाने भर में दक्ष होते हैं। उनकी अधिकांश क्षमता प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। काम न मिलने पर हर चीज निरर्थक रहती है। इसी प्रकार इन कोषों से दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ पूरा कर सकने के लिए आवश्यक थोड़ा सा काम कर लिया जाता है तो उतना ही करने में वे दक्ष रहते हैं। यदि अवसर मिला होता, उन्हें उभारा और प्रशिक्षित किया गया होता, तो वे अब की अपेक्षा लाखों गुनी क्षमता प्रदर्शित कर सके होते। अलादीन के चिराग की कहानी कल्पित हो सकती है, पर अपना मस्तिष्क सचमुच जादुई चिराग सिद्ध होता है।

यह मस्तिष्क मात्र रासायनिक पदार्थों से बना हुआ मांस पिंड भर नहीं है। बाहर से मस्तिष्क का आकार चाहे जो दिखाई दे उसकी विलक्षण विशेषताएँ आंतरिक भाग में विद्यमान रहती हैं। मस्तिष्क के आंतरिक हिस्से में, भीतरी भाग में चारों और दो काले रंग की पट्टियाँ लिपटी हुई हैं, इन्हें टेंपोरल कॉर्टेक्स कहते हैं। इनका क्षेत्रफल लगभग २५ वर्ग इंच और मोटाई एक इंच का दसवाँ भाग है। इनका स्थान कनपटियों से ठीक नीचे है। स्मृति का संयम और नियमन इन्हीं से होता है।

मस्तिष्क के शल्य चिकित्सक डॉ० विल्डर पेनफील्ड ने इन पटियों की विशेष खोज की है और वे मुददतों पुरानी ऐसी स्मृतियों को जाग्रत् करने में सफल हुए हैं, जिन्हें सामान्य या उपेक्षणीय कहा जा सकता है। महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने वाली घटनाएँ तो प्रायः याद रहती हैं, पर जो दैनिक जीवन में ऐसे ही आँखों के सामने से गुजरती रहती हैं, उनका कोई महत्त्व नहीं माना जाता, वे विस्मृति के गर्त में जा पड़ती हैं। पुरानी हो जाने पर उन्हें याद कर सकना संभव नहीं होता, फिर भी वे पूर्णतया विस्मृत नहीं कही जा सकतीं। वे 'टेंपोरल कॉर्टेक्स' की पटियों के पुराने परत के स्पर्श करने से जाग्रत् हो सकती हैं। डॉ० विल्डर ने कितने ही व्यक्तियों के मस्तिष्क के मर्मस्थलों का विद्युत् धारो से स्पर्श करके निरर्थक घटनाक्रमों को स्मरण कराने में सफलता प्राप्त की है।

स्मरण शक्ति की विलक्षणता को ही लें, वह कई व्यक्तियों में इतनी अधिक मात्रा में विकसित पाई जाती है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। लिथुयानिया का रैवी एलिजा दो हजार पुस्तकें कंठाग्र रखने के लिए प्रसिद्ध था। कितनी ही बार उलट-पुलटकर उसकी परीक्षा की गई और वह सदा खरा उतरा। फ्रांस का राजनेता लिआन गैम्वाटा को विक्टर ह्यूगो की रचनाएँ बहुत पसंद थीं। उनमें से उसने हजारों संदर्भ के पृष्ठ याद कर रखे थे और उन्हें आवश्यकतानुसार धड़ल्ले के साथ घंटों दूहराता रहता था। इसमें एक शब्द भी आगे पीछे नहीं होता था। पृष्ठ संख्या तक वह सही-सही बताता चलता था।

ग्रीक विद्वान् रिचार्ड पोर्सन को भी पढ़ी हुई पुस्तकें महीनों याद रहती थीं। जो उसने आज पढ़ा है उसे एक महीने तक कभी भी पूछा जा सकता था और वे उसे ऐसे सुनाते थे मानो अभी-अभी रट कर आये हों। शतरंज का जादूगर नाम से प्रख्यात अमेरिकी नागरिक हैरी नेल्सन पिल्सबरी एक साथ बीस शतरंज खिलाड़ियों की चाल को स्मरण रखकर उनका मार्गदर्शन करता था। यह सब काम पूरी मुस्तैदी और फुर्ती से चलता था। बीसों खिलाड़ी उसका मार्गदर्शन पाते और खेल की तेजी बनाये रखते थे। प्रसा जर्मनी का लायब्रेरियन मैथूरिन वेसिरे दूसरों के कहे शब्दों की हूबहू पुनरावृत्ति कर देता था। जिन भाषाओं का उसे ज्ञान नहीं था, उनमें वार्तालाप करने वालों की बिना चूक नकल उतार देने की उसे अद्भुत शक्ति थी। एक बार बारह भाषा-भाषी लोगों ने अपनी बोली में साथियों से वार्तालाप किये। मथुरिन ने क्रमशः बारहों के वार्तालाप को यथावत् दुहरा कर सुना दिया। बर्मा का आठ वर्षीय बालक जेरा कोलबर्न गणित के अति कठिन प्रश्न को बिना कागज-कलम का सहारा लिए मौखिक रूप में हल कर देता था। लंदन के गणितज्ञों के सम्मुख उसने अपनी अदभुत प्रतिभा का प्रदर्शन करके सबको चकित कर दिया था। हैंबर्ग निवासी जान मार्टिन डेस भी अति कठिन गणित प्रश्नों को मौखिक रूप से हल करने में प्रसिद्ध था। उन दिनों उसके दिमाग की गणित क्षमता इतनी बढ़ी-चढ़ी थी कि आज के गणित कंप्यूटर भी उससे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते थे।

मानवी-मस्तिष्क में जो अद्भुत शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, उनमें से वह केवल कुछ की ही थोड़ी-सी ही मात्रा का प्रयोग कर पाता है। सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक शिक्षण द्वारा मनुष्य की जानकारी तथा क्रिया-कुशलता बढ़ती है। उस आधार पर वह अनुभव एवं अभ्यास को बढ़ाकर तरह-तरह की भौतिक सफलताएँ प्राप्त करता है। सामान्य जीवन की प्रगति इस प्रशिक्षणजन्य मस्तिष्कीयविकास पर ही निर्भर रहती है। यह सारा क्रियाकलाप समग्र मानसिक क्षमता का एक बहुत छोटा अंश है। इस परिधि से बाहर इतनी अधिक सामर्थ्य बच जाती है, जिसका कभी स्पर्श तक नहीं हो पाता और अछूती क्षमताओं को प्रसुप्त अवस्था में पड़ी रहने की दुःखद स्थिति में ही जीवन का अंत हो जाता है।

मस्तिष्कीय चमत्कारों में एक स्मरण-शक्ति का विकास भी है। यदि उस संस्थान को समुन्नत बना लिया जाए, तो सामान्यतया जितना मानसिक श्रम किया जा सकता है, उससे कई गुना कर सकना संभव हो सकता है।

संयुक्त-राष्ट्र संघ में एक ऐसे भाषा-अनुवादक थे, जो एक ही समय में चार भाषाओं का अनुवाद अपने मस्तिष्क में जमा लेते थे और चार स्टेनोग्राफर बिठाकर उन्हें नोट कराते चले जाते थे।

दार्शनिक जेरमी बेंथम जब चार वर्ष के थे, तभी लैटिन और ग्रीक भाषाएँ ठीक तरह बोलने लगे थे। जर्मनी गणितज्ञ जाचारियस ने एक बार २०० अंकों वाली लंबी संख्या का गुणा मन ही मन करके लोगों को अचंभे में डाल दिया था। अमेरिका के एक गैरिज-कर्मचारी को सैकड़ों मोटरों के नंबर जबानी याद थे और वह उनकी शक्ल देखते ही पुरानी मरम्मत की बात भली प्रकार याद कर लेता था।

डार्ट माउथ कालेज अमेरिका में एक प्रयोग किया गया कि क्या छात्रों की पुस्तक पढ़ने की गति तीव्र की जा सकती है ? मनोवैज्ञानिक व्यायामों और प्रयोगों के सहारे हर मिनट २३० शब्दों की औसत से पढ़ने वाले छात्रों की गति कुछ ही समय में बढ़कर ५०० शब्द प्रति मिनट तक पहुंच गई।

छोटी आयु भी प्रगति में बाधा नहीं डाल सकती है। शर्त एक ही है कि उसे मनोयोगपूर्वक अपने कार्य में तत्पर रहने की लगन हो। सैन फ्रांसिस्को कोलंबिया विश्वविद्यालय में जब प्राकृतिक इतिहास का प्रोफेसर नियुक्त हुआ तब उसकी आयु मात्र १६ वर्ष की थी।

आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने एक चार वर्षीया बालिका बेवेक थांपनन के गणित अध्ययन के लिए अतिरिक्त प्रबंध किया है। यह बालिका इतनी छोटी आयु में ही अंकगणित, त्रिकोणमिति और प्रारंभिक भौतिक-शास्त्र में असाधारण गति रखती थी। इस उम्र के बालक ने जिसने प्रारंभिक पढ़ाई क्रमबद्ध रीति से नहीं पढ़ी, आगे कैसे पढ़ाया जाए ? इसका निर्धारण करने के लिए शिक्षाशास्त्रियों को एक विशेष पैनल बनाकर काम करना पड़ा है।

२७ सन् १६७६ में मद्रास संगीत एकादमी नयास की ओर से रविकिरण नामक ढाई वर्ष के बालक को इसकी अद्भुत संगीत प्रतिभा के उपलक्ष्य में ५०) रु० प्रति मास तीन वर्षों तक अतिरिक्त छात्रवृत्ति देने की घोषणा की गई। यह बालक न केवल कई वाद्ययंत्रों का ठीक तरह बजाना जानता था, वरन् दूसरों द्वारा गलत बजाये जाने पर उस गलती को बताता भी था।

उदाहरण यह बताते हैं कि हमारे मस्तिष्क में सारे संसार का ज्ञान आत्मसात् कर लेने वाले विलक्षण तत्त्व विद्यमान हैं। लार्ड मैकाले १9वीं सदी के विख्यात ब्रिटिश इतिहास लेखक थे। उनने इंग्लैंड का इतिहास आठ जिल्दों में लिखा था। उसके लिए उन्होंने दूसरी पुस्तकें उठाकर भी नहीं देखीं। हजारों घटनाओं की तिथियाँ और घटनाएँ संबंधित व्यक्तियों के नाम उन्हें जवानी याद थे। यही नहीं, स्थानों के परिचय-दूसरे विषय और अब तक जितने भी व्यक्ति उनके जीवन संपर्क में आ चुके थे, उन सबके नाम उन्हें कंठस्थ थे। लोग उन्हें चलता फिरता पुस्तकालय या विश्वकोश कहते थे।

पोर्सन ग्रीक भाषा का अद्वितीय पंडित था, उसने ग्रीक भाषा की सभी पुस्तकें और शेक्सपियर के नाटक मुख-जबानी याद कर लिए थे। ब्रिटिश संग्रहालय के सहायक अधीक्षक रिचर्ड गार्नेट बारह वर्ष तक एक संग्रहालय के मुद्रित पुस्तक विभाग के अध्यक्ष थे, इस संग्रहालय में पुस्तकों की हजारों आलमारियाँ और उनमें करोड़ों की संख्या में पुस्तकें थीं। श्री गार्नेट अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे न केवल पुस्तक का ठिकाना बता देते थे, वरन् पुस्तक की भीतरी जानकारी भी देते थे।

जर्मनी के कार्लविट नामक बालक ने स्वल्पायु में आश्चर्यजनक बौद्धिक प्रगति करने वाले बालकों में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। वह 9 वर्ष की आयु में माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण करके लिपजिंग विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुआ और १४ वर्ष की आयु तक पहुँचने पर उसने न केवल स्नातकोत्तर परीक्षा पास की वरन् विशेष अनुमति लेकर साथ ही पी० एच० डी० की डिग्री भी प्राप्त कर ली। १६ वर्ष की आयु में उसने उससे भी ऊँची एल० एल० डी० की उपाधि अर्जित की और उन्हीं दिनों वह बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त किया गया।

इस घटना पर टिप्पणी करते हुए "न्यूरोन फिजियोलॉजी इंट्रोडक्शन" के लेखक डॉ० जी० सी० एकिल्स ने लिखा है कि यह अनुभव यह बताते हैं कि मनुष्य को बालक के रूप में उपलब्ध ज्ञान जन्मांतरों के संस्कार के अतिरिक्त क्या हो सकता है ? अतएव हमारे जीवन का सर्वोपरि ज्ञान होना चाहिए।

वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर आ गये हैं कि मस्तिष्क में ऐसे तत्त्व भी हैं, जो २० अरब पृष्ठों से भी अधिक ज्ञान भंडार सुरक्षित रख सकने में समर्थ हैं। एक व्यक्ति एक दिन में लगभग ५० लाख चित्र देखता है, उनकी बनावट रूप-रंग, ध्वनि, सुगंध व मनोभावों का भी आकलन करता है। अभिव्यक्त न कर सकने पर भी अनुभूत ज्ञान के रूप में उसमें से विशाल भंडार मस्तिष्क में बना रहता है। इस दृष्टि से मस्तिष्क किसी जादुई पिटारे से कम नहीं। यदि उसे वस्तुतः जाग्रत् किया जा सके तो मनुष्य त्रिकालज्ञ हो सकता है, भारतीय तत्त्वदर्शन की यह मान्यता कपोल कल्पित नहीं, इन तथ्यों के प्रकाश में वैज्ञानिक सत्य ही प्रतीत होता है।

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