आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटरश्रीराम शर्मा आचार्य
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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...
उसी से डरें, जिससे डरना चाहिए
संकट भयंकर तब तक लगता है जब तक उसके साथ मुठभेड़ नहीं होती। जब उसके साथ गुथ
जाया जाता है और मानसिक संतुलन बिगड़ने नहीं दिया जाता, तो प्रतीत होता है कि
जितना सोचा गया था उससे आधी-चौथाई भी उसकी वास्तविक भयानकता नहीं थी। संकटों
के साथ गुथने का जैसे-जैसे अभ्यास होता जाता है, वैसे-वैसे वे स्वाभाविक
दैनिक कार्यों की तरह सरल प्रतीत होने लगते हैं।
अपने लिये साँप और शेर बहुत भयंकर होते हैं, पर बहुत से लोगों का धंधा ही
उन्हें पकड़ना-मारना है। सपेरे रोज ही काले विषधर नाग पकड़ते हैं, शिकारी आये
दिन शेर-बाघ का शिकार करते हैं। उन्हें वे जरा भी डरावने नहीं लगते वरन्
उन्हें ढूँढ़ते रहते हैं और मिल जाने पर प्रसन्न होते हैं। जबकि अजनबी
व्यक्ति को साँप, शेर की तस्वीर देखने और चर्चा सुनने भर से पसीना छूटता है।
अँधेरे में घुसने में डर लगता है। सुनसान में प्रवेश करते हुए पैर काँपते
हैं। मन में तरह-तरह की आशंकाएँ उठती हैं कि उस अँधेरे-सुनसान में न जाने
क्या विपत्ति होगी? शेर, साँप, बिच्छू, भूत आदि की कितनी आशंकाएँ सामने आती
हैं और दिल धड़कने लगता है। पर जब उसमें निधड़क प्रवेश किया जाता है—दीपक
लेकर देखा जाता है तो प्रतीत होता है कि वहाँ डरने जैसा कुछ भी नहीं था। मन
की दुर्बलता ही है, जो जरा-सा आधार मिलते ही तिल का ताड़ बनाती है। काल्पनिक
भय गढ़ कर उन्हें इस तरह चित्रित करती है मानो प्राणघाती-सर्वनाशी संकट आ
गया। अब बचना कठिन है। जबकि वस्तुतः जरा-सा कारण ही वहाँ रहा होता है और वह
भी इतना छोटा कि उसके साथ आसानी से निपटा जा सके।
दुनिया में लाखों करोड़ों लोग अँधेरे में रहते और आते-जाते हैं। वन्य
प्रदेशों में यदा-कदा ही दीपक का प्रयोग होता है। किसान खेतों पर सोते हैं और
रात को रखवाली करते हैं। छोटी झोंपडियाँ बनाकर सघन जंगलों में लोग परिवारों
समेत रहते हैं। धनी लोग सघन बस्ती से हटकर खुले बंगलों में रहते हैं। चोर,
डाकू, साँप, बिच्छू, शेर, बाघ, भूत-पलीत कहाँ, किसको खाते है ? यदा-कदा तो
दुर्घटनाएँ दिन दहाड़े बीच बाजार में भी हो सकती हैं। संकट के वास्तविक अवसर
कम ही आते हैं। अधिकतर तो लोग काल्पनिक संकट गढ़ते हैं और अपने बनाये उस
खिलौने को देख-देखकर डरते-मरते रहते हैं।
भय वस्तुतः कायरता की प्रतिकृति है। अपना मुँह जैसा भी होगा वैसा ही दर्पण
में दीखेगा। आँखों पर पीले काँच का चश्मा पहन लिया जाए तो हर चीज पीली दिखाई
देगी। कायर मनुष्य की आंतरिक दुर्बलता संसार रूपी दर्पण में विपत्ति बनकर
दीखती है। संकट का सामना करने की—उससे उलझने, निपटने की क्षमता अपने में नहीं
है, यह मान लेने के बाद ही डर आरंभ होता है। जिसे यह भरोसा है कि कठिन अवसर
आएँगे तो सूझबूझ के साथ उनका मुकाबला करेंगे।
उन्हें हटाने के लिए जूझेंगे। इसके लिए अवश्य समझ और बल अपने पास है। मित्र
और ईश्वर साथ देगा। इस प्रकार की हिम्मत यदि अपने में मौजूद हो तो काल्पनिक
डरों से छुटकारा मिल पाता है और तीन चौथाई मन का बोझ हल्का हो जाता है।
वास्तविक कारण एक चौथाई होते हैं, सो उनके साथ अपने शौर्य को बढ़ाने का
व्यायाम समझकर लड़ा जा सकता है। तैरना, कूदना, मोटर चलाना, व्यायाम
प्रतियोगिता, वन-पर्वत की यात्रा, यह सभी जोखिम भरे काम हैं। इनमें थोड़ी सी
चूक कठिनाई खड़ी कर सकती है, पर उस आशंका के कारण कौन उन साहसिक कार्यों का
आनंद छोड़ता है ? डर से बचने के उपाय सोचते रहने पर भी उनसे बचे ही रहेंगे,
इस बात का कोई निश्चय नहीं। बीमारी कौन चाहता है ? मौत किसे सुहाती है ? पर
जब आने की घड़ी आ पहुँचती है तो बचने की सारी तरकीबें बेकार चली जाती हैं।
निःशंक होकर रहना और जब जो संकट आएगा उससे निपट लिया जाएगा, ऐसी हिम्मत रखना;
बस संसार में चैन से रहने का यही तरीका है।
भय एक प्रकार की अकड़न है। अकड़न की बीमारी सारे शरीर को जकड़ देती है। अंग
सीधे ही नहीं होते, चलना-उठना कठिन हो जाता है। रक्त ठंडा पड़ जाता है और
दिमाग सोचना बंद कर देता है। चाहने पर भी शरीर कुछ काम नहीं करता। लकवा,
गठिया जैसे रोग ऐसे ही होते हैं जो जीवित मनुष्य को मृतक जैसा बना देते हैं।
उन्हीं में से एक रोग है—भय। डर का अर्थ-पुरुषार्थ की शक्ति रहते हुए भी उसका
कुंठित हो जाना। सिंह को देखकर हिरन चौकड़ी भरना भूल जाते हैं खड़े हो जाते
हैं और बे-मौत मरते हैं। यदि उनमें हिम्मत बनी रहती और छलांग भरते तो संभवतः
परिणाम कुछ और ही होता। प्राणिशास्त्रियों के अनुसार हिरन शेर की अपेक्षा
अधिक दौड़ को क्या कहा जाए, हिम्मत हार जाने पर तो मौत के मुँह में जाने के
अलावा और कुछ रास्ता बनता नहीं।
कथा है कि एक बार यमराज ने महामारी को पृथ्वी पर भेजा और पाँच हजार मनुष्य
मार लाने के लिए आदेश दिया। बीमारी गई और अपना काम पूरा करके लौट आई। मृतक
गिने गये तो वे पंद्रह हजार थे। यमराज ने डाँटा और पूछा-आदेश से तिगुने मृतक
क्यों ? महामारी ने गंभीरतापूर्वक कहा—उसने केवल पाँच हजार ही मारे हैं। शेष
तो डर के मारे खुद ही मर गये हैं।
मानसिक दुर्बलता के अतिरिक्त डर का एक और कारण है-अनैतिकता। जिसकी अंतरात्मा
कलुषित और पाप कर्म से लिप्त है, वह कभी चैन की नींद न सो सकेगा। उसे दूसरे
की ओर से तरह-तरह की आशंकाएँ रहेंगी। उसे उनसे धोखा होने का बदला लेने का
फंसा देने का डर बना ही रहेगा। पोल खुल जाने पर बदनामी फैलेगी और लोग सतर्क
होकर उसके जाल में फंसने तथा साथ देने से अलग हो जायेंगे। निंदा और असहयोग की
स्थिति में उसका भविष्य ही अंधकारमय हो जाएगा। इस डर से उसका मन सदा आशंकित
रहता है। पाप कर्म के फलस्वरूप समाज का दंड, राजदंड तथा ईश्वरीय दंड मिलते
हैं। तीनों इकट्ठे होकर या अलग-अलग से वे कभी न कभी मिलकर ही रहेंगे, इस भय
से भीतर ही भीतर बड़ी बेचैनी रहती है। इस आत्मदेव की पीड़ा उसे निरंतर टोंचती
रहती है। बाहर वाले दंड मिलने में तो देर सबेर भी हो सकती है, पर आत्म दंड तो
कुमार्ग पर कदम धरते ही मिलना आरंभ हो जाता है और वह निरंतर दुःख देता रहता
है।
बेईमान और झूठा मनुष्य आँखें मिलाकर दूसरों को नहीं देख सकता और न जी खोलकर
बात करने की हिम्मत पड़ती है। बनावटी, उथली-उखड़ी बातें करते हुए उसका ओछापन
प्रत्यक्ष प्रकट होता रहता है और उसकी मुखाकृति, चेष्टा, भाव-भंगिमा,
गतिविधियाँ वास्तविकता प्रकट करती रहती हैं। अपना आपा ही-चुगली करता है और
मूक वाणी से यह घोषित करता रहता है यहाँ धोखा ही धोखा है।
कर्जदार अक्सर अनैतिक लोग ही होते हैं। आमदनी से अधिक खर्च करना चोरी,
उठाईगीरी की तरह सर्वथा अनैतिक है। अपनी हैसियत, औकात, आमदनी से बढ़कर
ठाट-बाट बनाना, दूसरों को ठगने जैसी कुचेष्टा ही है। ऐसे फिजूलखर्ची लोग
कर्जदार हो जाते हैं, चुका पाते नहीं, मित्रों के बीच न उनका विश्वास रह जाता
है न सम्मान। जिनसे पैसा लिए हैं उनसे आँखें चुराते हैं और नये शिकार तलाश
करते हैं। ऐसे लोग पग-पग पर डरते हैं कि कर्ज देने वाला उनकी इज्जत खराब न कर
दे।
सचमुच किसी आकस्मिक मुसीबत में फंस जाने वाला व्यक्ति मित्रों की सहानुभूति
का पात्र होता है। वस्तुस्थिति समझ कर लोग उसका सम्मान कम नहीं करते। पर जो
फिजूलखर्ची की अनैतिकता अपना कर कर्जदार बना है उसे हर जगह शर्मिंदगी और लानत
का ही सामना करना पड़ेगा। अनैतिकता का हर कदम डराने वाला होता है। चोर और
व्यभिचारी, बेईमान और अनाचारी व्यक्ति पग-पग पर अपने आसपास संकट मँडराता
देखते हैं। हर किसी को आशंका भरी दृष्टि से देखते हैं कि कहीं किसी को उसके
कपट जाल का पता न चल गया हो और कोई उसका भंडाफोड न कर दे। यह आशंका अपने आप
में इतनी डरावनी है कि मिलने वाले दंड की अपेक्षा वह पहले ही मानसिक
श्रेष्ठता, स्वभाव और सद्गुणों का नाश कर चुकी होती है।
डर का एक बड़ा कारण अज्ञान भी है। आदिम काल में मनुष्य को सूर्य ग्रहण, बिजली
की कड़क, पुच्छल तारे आदि के बारे में कुछ पता न था। वह इनसे डरता था और
देवता समझ कर उनके कोप से बचने के लिए तरह-तरह के पूजन-बलिदान करता था। पीछे
जब वास्तविकता समझ में आ गई तो वह डर सहज ही चला गया। भूतपलीतों का डर अब
धीरे-धीरे समाप्त होता चला जाता है।
ग्रह दशा-जन्म कुंडली जैसी फलित ज्योतिष की मान्यताएँ भी लगभग ऐसी ही हैं।
कभी सोचा जाता था कि आसमान में रहने वाले ग्रह-नक्षत्र मनुष्यों पर
कोप-अनुग्रह करते हैं, इसी से उसे सुख-दुःख मिलते हैं। अब यह प्रकट हो गया है
कि यह आकाश में स्थित पिंड निर्जीव हैं, बहुत दूर हैं और व्यक्तिगत रूप से
उनका किसी को दुःख-सुख पहुँचा सकना असंभव है। यह तथ्य समझ में आने पर लोगों
ने ग्रह-नक्षत्रों से-कल्पित देवी-देवताओं से डरना छोड़ दिया है। ज्ञान की
वृद्धि के साथ-साथ अनेक प्रकार के डर स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।
जिसका भय करना चाहिए उसका नहीं किया जाता और जिनका डर करने की कतई जरूरत
नहीं, उनसे डरते रहते हैं। पाप से डरना चाहिए, कर्मफल से डरना चाहिए और ईश्वर
के न्याय से। पर इनसे कौन डरता है ? चोरी करते हुए, भोले लोगों को ठगते हुए,
छल प्रपंच रचते हुए, नशेबाजी, व्यभिचार, बेईमानी, असत्य भाषण करते हुए कौन
डरता है ? डरते हैं मिट्टी के पुतले मनुष्य से लोहे के टुकड़ों से बने
हथियारों से-काल्पनिक भूत-पलीतों से और दीन-दुर्बल, कुकर्मी आतंकवादियों से
हमें अपने इस अज्ञान को समझना चाहिए और उन अकिंचन व्यक्तियों, वस्तुओं और
परिस्थितियों से डरने से इकार कर देना चाहिए जो वस्तुतः तुच्छ एवं असमर्थ
हैं। डरना ही हो तो ईश्वर की दंड व्यवस्था और दुष्प्रवृत्तियों से डरना
चाहिए, दुःख तो हमें इन्हीं के कारण मिल सकता है।
इस संसार में भयभीत होने के कोई भी कारण नहीं हैं सिवाय अपने मन की कमजोरी
के। यह दुर्बलताएँ विचारों और भावनाओं में परिपक्वता के अभावस्वरूप ही
उत्पन्न होती है। यदि विचार, विवेक और समझ-बूझ से काम लिया जाए तो इस प्रकार
की दुर्बलताओं का निवारण किया जा सकता है। यद्यपि ये दुर्बलताएँ उत्पन्न होती
ही असावधानीवश है। फिर भी यदि इन्हें दूर करने के प्रयास किये जाएँ तो कोई
कारण नहीं कि उनका परिमार्जन न किया जा सके।
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