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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4099
आईएसबीएन :000

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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...

यों नष्ट होती हैं शक्ति क्षमताएँ


मस्तिष्क यों विलक्षण क्षमताओं का केंद्र है, पर सर्वसाधारण न उन क्षमताओं का उपयोग कर पाते हैं और न उनके बारे में जानते ही हैं। ये क्षमताएँ जाग्रत् हो सकें, इस तरह की परिस्थितियाँ मनुष्य के लिए स्वयमेव ही उपलब्ध हैं परंतु अपनी ही गलतियों के कारण वह उन शक्तियों, क्षमताओं को नष्ट करता रहता है। इन गलतियों के दुष्परिणाम चिंता, तनाव, आत्महीनता और विविध भाँति के मनोरोगों के रूप में उत्पन्न होते रहते हैं। इन्हीं कारणों से मनुष्य अस्त-व्यस्त, दीन-हीन, क्षुद्र, दुर्बल और पंगु-अकर्मण्य बनता चलता है।

ये विकृतियाँ क्यों उत्पन्न होती हैं ? इनके क्या दुष्परिणाम होते हैं ? यह यदि जान लिया जाए तो इनको समाप्त करने का मार्ग भी मिल सकता है और इनके कारण होने वाले दुष्परिणामों से भी बचा जा सकता है। सौ में से निन्यानबे मानसिक विकृतियाँ तो मनुष्य के सोचने-समझने के दूषित ढंग से ही उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए चिंता को ही लें। जन्म के समय सभी निश्चित और प्रफुल्लित रहते हैं। बंद मुट्ठियाँ लेकर जन्मने वाले बच्चे के पास भौतिक दृष्टि से क्या होता है ? कुछ भी नहीं। फिर वह कौन सी ज्योति है, जो एक शिशु अपने नन्हे हृदय में धारण किये इस संसार में विनोद-उल्लास की अभिवृद्धि करता रहता है। सर्वथा अकिंचन, असमर्थ और नासमझ बच्चे की सक्रियता भी इस समय देखते ही बनती है, लेकिन बड़ा होने पर वही व्यक्ति, सही स्वस्थ दृष्टिकोण एवं समुचित प्रशिक्षण के अभाव में, जहाँ एक ओर महत्त्वाकांक्षाओं के नाम पर ऊँची कल्पनात्मक उड़ानों का अंबार लगा लेता है, वहीं दूसरी ओर काल्पनिक चिंताओं के भयंकर नागों और प्रचंड महासर्पिणियों को पाल-पोसकर उनकी वंश वृद्धि करता जाता है।

अधिकांश व्यक्ति अधिकतर समय किसी न किसी चिंता के तनाव से व्यग्र-बेचैन रहते और तड़पते रहते हैं। चिंता सदा बड़ी या विशेष बातों को ही लेकर नहीं होती। कई बार तो बहुत ही मामूली, छोटी-छोटी बातों को लेकर लोग चिंता पालते रहते हैं। मन तो हैजैसा अभ्यास डाल दिया जाए, बेचारा वफादार नौकर की तरह वैसा ही आचरण करने लगता है। जब अपनी चिंता नहीं होती तो पड़ौसियों के व्यवहार-विश्लेषण और छिद्रान्वेषण द्वारा चिंता के नये-नये आधार ढूँढ़ निकाले जाते हैं। या फिर समाज के बिगड़ जाने, लोगों में भ्रष्टाचार फैल जाने, खाद्य पदार्थों में मिलावट की प्रवृत्ति बढ़ने, दो लड़के-लड़कियों द्वारा अंतर्जातीय प्रेम-विवाह कर लेने, मुहल्ले की किसी बारात की व्यवस्था ठीक न होने, किसी नवविवाहित दंपत्ति का 'पेयर' ठीक न होने आदि की गंभीर चिंताएँ प्रसन्नता और एकाग्रता को चाट जाने के लिए पर्याप्त ही सिद्ध होती हैं। मोटर में बैठे हैं, तो चिंता लगी है कि कहीं मोटर के सामने से आ रहे किसी ट्रक या बस की भिड़त न हो जाए अथवा चालक निद्राग्रस्त न हो जाए, वायुयान में जा रहे हैं, तो चिंता हो गई है कि कहीं यह विमान सहसा नीचे न गिर जाए।

धर्मपत्नी किसी से सहज सौम्य वार्तालाप कर रही है, तो पति महोदय को चिंता हो गई है कि कहीं यह व्यक्ति इस वार्तालाप को अपने परिचितों के बीच गलत रूप में न प्रचारित करे। याकि पत्नी कहीं उससे मेरी बुराई न करती हो अकेले में। कहीं धर्मपत्नी स्वभाव से मितभाषी हुई, तो चिंता है कि लोग इसे मूर्ख या घमंडी न समझ बैठे। इसी तरह पति महोदय कार्यालय से देर से आये तो पत्नी चिंतित है कि कहीं मेरे प्रति इनका प्रेम घट तो नहीं रहा। ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें उनके परिचित यदि व्यस्तता में या कि अन्यत्र ध्यान दिये होने के कारण किसी दिन नमस्कार करना भूल जाएँ, तो उन्हें चिंता होने लगती है कि कहीं मेरे प्रति इसकी भावना तो परिवर्तित नहीं हो गई।

है तो चिंता एक काल्पनिक उड़ान मात्र किंतु व्यक्ति उसे यथार्थ की तरह मानकर तनाव और भय से भर उठते हैं। यह बैठे ठाले अपने शरीर संस्थान को एक अनावश्यक श्रम में जुटा देने तथा कष्ट में फँसा देने वाली क्रिया है। इसके परिणामस्वरूप सर्वप्रथम होता है अपच। क्योंकि उदर-संस्थान स्वाभाविक गति से कार्य नहीं कर पाता। फिर अनिद्रा, सिर दर्द, सर्दी-जुकाम आदि का जो क्रम प्रारंभ होता है वह हृदय रोग तक पहुँचकर दम लेता है। मनःशक्ति के अपव्यय से एकाग्रता और मनोबल का हास होता है, स्मरणशक्ति शिथिल होती जाती है और जीवन में विषाद ही छाया रहता है।

चिंता करने का अभ्यस्त मन सोते में देखे गये चित्र-विचित्र स्वप्न दृश्यों का मुफ्त के सिनेमा के रूप आनंद लेना तो दूर, उसकी अजीबो-गरीब व्याख्याएँ ढूँढता-पूछता रहता और अंधविश्वास संत्रास तथा मतिमूढ़ता की एक निराली ही दुनिया रचता रहता है। वह हताश और भयभीत रहता है तथा अपनी वास्तविकता क्षमता का एक बड़ा अंश अनायास ही गँवा बैठता है। विपत्तियों का सामना करने में, शत्रुओं से संघर्ष में जो शक्ति व्यय की जाने पर सफलता और आनंद प्रदान करती, वह काल्पनिक भय के दबाव से क्षत-विक्षत होती रहती है। ऋण पटाने के लिए किये जाने वाले पुरुषार्थ में यदि वही शक्ति नियोजित की गई हो, जो कर्ज के भार से लदे होने की चिंता में बहाई जा रही है, तो मस्तक ऊँचा होता है और चित्त प्रफुल्ल। चोर-लुटेरों की, काल्पनिक विपदाओं की चिंता व्यक्ति की शक्ति को लीलती रहती है। असफल रह जाने की चिंता भी कई लोगों की मृत्यु के समान दुःखदायी प्रतीत होती है। वे इस सामान्य तथ्य को भुला बैठते हैं कि असफलता और सफलता तो सभी के जीवन में आती-जाती रहती हैं।

अपने दुराचरण और अपराध पर तो ग्लानि स्वाभाविक है। पर उसकी भी चिंता करते रहने से मन क्षेत्र में कुंठा और विषाद की ही वृद्धि होगी। आवश्यक है वैसे आचरण की अपने भीतर विद्यमान जड़ो को तलाश कर उन्हें उखाड़ फेंकना तथा प्रायश्चित्त के रूप में समाज में सत्प्रवृत्ति के विस्तार में अपना योगदान देना, कोई सृजनात्मक विधि अपनाना जिससे मन का वह भार हल्का हो सके।

चिंता सदैव भय उत्पन्न करती और आत्मविश्वास का हरण करती है। भविष्य में आने वाली कठिनाइयों, उपस्थित होने वाले अवरोधों-उपद्रवों, आ पड़ने वाली विपत्तियों-प्रतिकूलताओं और प्राप्त होने वाली विफलताओं की कल्पना-जल्पना, आशंका-कुशंका चित्र-विचित्र रूप धारणकर व्यक्ति को भयभीत करती और साहसहीन बनाती रहती है। आत्मविश्वास नहीं रहे तो अपने को ही प्राप्त सफलताओं तक का स्मरण नहीं रहता, किसी दिशा में तेजी से चल पड़ने का साहस नहीं जुट पाता, जबकि प्रगति-पथ पर अग्रसर होने के लिए आत्मविश्वासजन्य साहस की सर्वोपरि आवश्यकता है। चिंतन तो अनिवार्य है। किसी रास्ते या कार्य-विशेष को चुनने के पहले उसके सभी पहलुओं पर भली-भाँति चिंतन, मनन करना आवश्यक है, पर निर्णय लेने के बाद अभीष्ट प्रयोजन के लिए तत्परतापूर्वक जुट जाना होता है। चिंता का तब अवकाश ही नहीं रहना चाहिए। चिंता तो निष्क्रियता की उत्पत्ति भी है और उत्पादक भी। चिंता से विक्षुब्ध मन, शक्ति का कितना हास करता है, यह यदि लोग जान जायें तो कभी उद्विग्नता और तनाव की जननी चिंता को प्रश्रय न दें। अधिकांश लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में चिंताग्रस्त होकर हताश के गहन अंधकार के विवों में फँसकर अपना सब कुछ गँवा बैठते हैं, किंतु मनस्वी, विवेकी व्यक्ति ऐसी विषम स्थितियों में अधिक साहस और सक्रियता के साथ आगे बढ़ते हैं तथा विजय प्राप्त करते हैं। आशा और उल्लास मनुष्य-जीवन के चिरंतन सुरभित पुष्प हैं। चिंता की काली छाया से इन्हें कुम्हलाने न देने पर ही मानव-जीवन सुगंधित प्रमुदित रह सकता है और अन्यों से भी सुरभि-सुषमा वितरित कर सकता है।

चिंता इन सुरभि-सुषमा को समाप्त कर डालती है। इसीलिए चिंता को चिता से भी बढ़कर कहा गया है। चिता यों मृत्यु के पश्चात् जलाती है, पर चिंता की ज्वाला जीवित व्यक्ति को ही जलाना आरंभ कर देती है। मस्तिष्क चिंता से झुलस कर निस्तेज और धुआँ से भरा रहता है। उसे चारों ओर धुआँ-धुआँ ही नजर आता है, ज्योति और उल्लास तो कहीं दीखता ही नहीं।

एक जर्मन मनोवैज्ञानिक ने चिंताग्रस्त लोगों का सर्वेक्षण किया। ज्ञात हुआ कि मात्र ८ प्रतिशत चिंताएँ ऐसी थीं, जिन्हें वजनदार कहा जा सकता था। १० प्रतिशत ऐसी थीं, जो थोड़े प्रयास से सुलझ गईं। १२ प्रतिशत स्वास्थ्य संबंधी सामान्य चिंताएँ थीं, जो सामान्य उपचार से ही सुलझ गईं। ३० प्रतिशत ऐसी थी, जो थीं तो वर्तमान से ही संबंधित पर जो साधारण सूझ-बूझ से सुलझ गईं। जो सर्वाधिक ४० प्रतिशत चिंताएँ काल्पनिक समस्याओं और आशंकाओं से संबंधित थीं।

ओसा जान्स का कथन है-"यदि मैं सतत सृजनात्मक चिंतन एवं कर्म में संलग्न रहने की विधि न सीख पाता तो औरों की तरह मुझे भी चिंता के कारण घुल-घुल कर मरना होता।"

व्यस्तताओं विषमताओं से भरे संसार में चिंता के झोंके यदा-कदा आते रहते हैं, पर उन्हें कभी भी चित्त पर अपना प्रभाव अंकित नहीं करने देना चाहिए। मानव जीवन एक सुरम्य उद्यान है। इसमें आनंद-उल्लास की, सुन्दर, कोमल संवेदनाओं के रूप में रंग-बिरंगे पुष्पों की कमी नहीं है। इन हँसते-मुस्कराते फूलों को चिंता की ज्वाला से झुलसने से बचाए रहने की कला का अभ्यास सभी को करना ही चाहिए।

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