आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटरश्रीराम शर्मा आचार्य
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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...
चिंता की सहोदरी खिन्नता
चिंता के समान ही शरीर मंदिर को ध्वस्त करने वाली एक दूसरी मानसिक दुर्बलता
है।
संसार में ऐसे न जाने कितने व्यक्ति देखने को मिल सकते हैं, जो हर समय कुछ
सोचते-विचारते से रहते हैं। उनका मुख मलीन और मुद्रा गंभीर रहती है। काम करते
हैं तो स्पष्ट झलकता है कि यह काम कर रहा है, उसमें उसका मनोयोग रंचमात्र भी
नहीं हैं, यों ही हाथ-पैर चलाता हुआ सक्रियता की अभिव्यक्ति ही कर रहा है।
केवल उनकी क्रिया देखने से ही नहीं, काम का स्वरूप देखकर भी पता चल जाता है
कि यह काम उत्साहपूर्वक, मनोयोग द्वारा नहीं किया गया है। बेगार टाली गई है
या कोई मजबूरी पूरी की गई है। किसी भी काम पर मनुष्य के मन की छाप पड़ना
स्वाभाविक ही है। उत्साह के साथ मन लगाकर कर्तव्यपूर्वक किए हुए किसी भी
कार्य की सफलता, सुन्दरता, व्यवस्था तथा समयांश स्पष्ट बता देता है कि इसका
करने वाला कोई जीवंत, उत्साही और कर्मों के धर्म और उसकी पवित्रता को जानने
वाला उसमें आस्था रखने वाला व्यक्ति है। इसके विपरीत किसी भी ऐसे काम को,
जिसमें किसी प्रकार का कर्तृत्व न झलका हो, जिनमें सफाई सुव्यवस्था और आकर्षण
का अभाव है अथवा जिसे देखकर मन प्रसन्न न हो जाए, आँखें तृप्त न हो
आयें-देखकर विश्वास कर लीजिए कि इस काम का करने वाला अदक्ष, अस्वस्थ अथवा
निरुत्साही व्यक्ति है।
इस प्रकार की असफल अभिव्यक्तियों वाला अवश्य ही कोई ऐसा व्यक्ति होता है, जो
व्यग्र, चिंतित, खिन्न अथवा निराश मनोदशा वाला होता है। जिन लोगों की आदत
खिन्न और अप्रसन्न रहने की हो जाती है, वे एक प्रकार से मानसिक रोगी ही होते
हैं। किसी काम, किसी बात और किसी व्यवहार में उनका मन नहीं लगता। उनके अन्दर
एक तनाव की स्थिति बनी रहती है और वे प्रतिक्षण मानसिक खींचातानी में पड़े
रहते हैं, जिसका फल यह होता है कि उनकी बहुत-सी ऐसी जीवन शक्ति जलकर भस्म हो
जाती हैं, जिसका सदुपयोग करने से सफलता के पथ पर, उन्नति के शिखर पर अनेक
विश्वस्त कदमों को बढ़ाया जा सकता है।
परमात्मा ने मनुष्य को जीवन दिया, जीवनी शक्ति दी, सक्रियता तथा कार्य के
प्रति अभिरुचि प्रदान की इसीलिए कि वह अपने कर्तव्यों में सुचारुता का समावेश
करके संसार को सुंदर बनाने, सुखी करने में अपना योगदान करे और उसी माध्यम
अथवा मार्ग से स्वयं भी अभ्युदय की ओर बढ़े, अपना और अपनी आत्मा का उपकार
करे, सुखी, संपन्न और संतुष्ट जीवन पाकर यह अनुभव कर सके कि मानव-जीवन में
सुंदरताओं के भंडार भरे पड़े हैं, उसके सत्य स्वरूप, सत्-चित्-आनंद के विषय
में सत्य ही कहा-सुना गया है, किंतु होता यह है कि लोग अपने अंदर खिन्नता,
अप्रसन्नता अथवा निराशा का रोग पाल कर सर्वसंपन्न मानव जीवन को आग और अंगारों
का मार्ग बना लेते हैं। सफलता, अभ्युदय और प्रकाश की ओर अग्रसर होने के स्थान
पर विफलता, अवनति और अंधकार के शिकार बन जाते हैं। यह बहुत ही खेद का विषय
है, किंतु इससे भी अधिक दुःख की बात यह है कि वे यह नहीं समझते कि इस प्रकार
की मनोदशा से वे अपनी और इस संसार की कितनी गहरी क्षति कर रहे हैं और यदि समझ
कर भी अपना सुधार करने खिन्नता की बेड़ियों से छूटने का प्रयत्न नहीं करते,
तब तो इस पर होने वाले दुःख का पारावार ही नहीं रह जाता, खिन्नता अथवा
अप्रसन्नता की स्थिति अकल्याणकर है इससे शीघ्र ही छुट लेना अच्छा है। खिन्न
रहकर जीवन को नष्ट करने का किसी भी मनुष्य का अधिकार नहीं है।
खिन्न मनःस्थिति वाले व्यक्ति को विक्षेप का रोग लग जाता है, कहीं भी किसी
बात में उसका मन नहीं लगता, घर में प्रसन्न बच्चों की क्रीड़ा, उनका
उछलना-कूदना, खेलना और प्रसन्न होना उसे ऐसा अखरता है मानो वे भोले-भाले
प्रसन्न बच्चे उसका अहित कर रहे हों। वह उनकी क्रीड़ा देखने पर प्रसन्न होने,
हँसने और उनके क्रीडा-कल्लोल में सहभागी होने के बजाय उन्हें डाटने-मारने
लगता है अथवा उससे विरक्त होकर, दुःखी होकर दूर हट जाता है अथवा बाहर चला
जाता है। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि उसका घर प्रसन्नता और उल्लास का
आगार बना हुआ है, किंतु खिन्न व्यक्ति उसका आनंद नहीं ले सकता, उलटे अपने
मानसिक वैपर्य के कारण वह पारिवारिक सुख उसे शालता और कष्ट देता है। इसे
भाग्य की वंचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।
बच्चों की क्रीड़ा ही नहीं खिन्न मना व्यक्ति को अपनी पत्नी का विनोद, उसकी
मुस्कान, उसका कथन अथवा अन्य प्रियतादायक बातें अच्छी नहीं लगती। पत्नी हँसती
है तो वह गुर्रा उठता है। पत्नी कोई बात कहती, पूछती अथवा सुनाती है तो काटने
दौड़ता है। अस्वस्थ मन वालों की अनुभव शक्ति कुछ इस प्रकार की उलटी हो जाती
है कि उन्हें अनुकूल से अनुकूल बात भी प्रतिकूल और सुंदर से सुंदर वातावरण
दुःखमयी लगने लगता है।
खिन्न व्यक्ति बाल-बच्चों के बीच तो त्रस्त रहता ही है, बाहर जाकर भी उसे
शांति एवं समाधान नहीं मिल पाता। कुछ ही समय में मित्रों के संपर्क से, उनके
साथ मनोविनोद और वार्तालाप में ऊब उठता है। उसे उपयोगी से उपयोगी बात-चीत
बेकार की बकवास लगती है। उसे बाह्य संसार का कोलाहल, उसकी हलचल उसका
क्रियाकलाप काटने को दौड़ता है। उपवन अथवा एकांत में भी उसका चित्त शांति से
वंचित रहता है। खिले हुए फूलों का सौंदर्य और कलरव करती हुई चिड़ियों का सुख
उसके लिए असंभव रहता है। कुछ ही देर में उपवन का सौंदर्य उसके लिए वन की
भयानकता में बदल जाता है। एकांत अथवा निर्जन स्थान में तो उसकी दशा और भी
खराब हो जाती है। वहाँ पहुँचते ही उसके मन की भयानकता, बाह्य निरसता में
मिलकर वातावरण को इतना असह्य बना देती है कि उसे वह स्थान श्मशान जैसा लगने
लगता है। उसे अपने से, अपनी छाया से भय लगने लगता है, जिससे वह उस शांत स्थान
में भी शांति नहीं पा पाता, जिसमें पहुँचकर किसी भी स्वस्थ चित्त व्यक्ति को
नये विचार, नूतन भाव और एक अलौकिक निस्तब्धता की उपलब्धि हो सकती है।
सुख-शांति के स्थानों में, घर और बाहर में किसी का उद्विग्न रहना, त्रास एवं
संताप पाना कितना बड़ा दंड हो सकता है। यह दंड किसी बड़े पाप का ही परिणाम हो
सकता है और वह पाप निश्चित रूप से वह पिशाचनी खिन्नता ही है, जिसे अज्ञानी
व्यक्ति अपने मनमंदिर में बसा लेता है, जिसमें सद्विचारों और शांति-संतोष के
देवी-देवताओं की स्थापना करनी चाहिए। जितना शीघ्र इस पाप से छूटा और बचा जा
सके उतना ही कल्याणकारी है।
खिन्नता के दोष से मनुष्य के मन में विक्षेप का विकार उत्पन्न हो जाता है,
जिससे न तो उसका मन किसी काम में लगता है और न किसी स्थान में उसे शांति
मिलती है। जहाँ आसपास लोग हँसते-बोलते, अपना काम-काज करते, संसार के सभी
व्यवहारों को निभाते, उन्नति और प्रगति करते हुए दिखाई देते हैं, वहाँ मलीन
मन व्यक्ति हर समय शोक-संताप में जलता और रोता-झींकता रहता है। संसार का कोई
भी काम वह ठीक से नहीं कर पाता। अभी एक काम प्रारंभ किया कि शीघ्र ही उसी
क्षण छोड़कर दूसरा करने लगा। अभी कहीं जाने का उत्साह जागा कि दूसरे ही क्षण
अंदर बैठी खिन्नता की डायन ने उसे क्षीण उत्साह का गला दबा दिया। खिन्न
व्यक्ति का मनोबल नष्ट हो जाता है, उसका आत्मविश्वास उसे छोड़कर चला जाता है,
जिससे वह संसार में आगे बढ़ने, अपनी आत्मा का उद्धार करने के लिए पुरुषार्थ
के योग्य नहीं रहता।
चिंता और खिन्नता जैसी मानसिक विकृतियाँ दुर्बल मनःस्थिति अथवा मानसिक
रुग्णता के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न होती हैं। इस तरह की मानसिक दुर्बलताएँ
व्यक्ति के स्वभाव में रचपच जाती है, तो वह न केवल मानसिक दृष्टि से अपितु
शारीरिक दृष्टि से भी अकर्मण्य, निरूपाय और कुछ न कर सकने की स्थिति में आ
जाता है। स्वभाव में सम्मिलित होने वाली मानसिक दुर्बलताओं में से एक है बिना
सोचे समझे कभी भी कुछ भी कर डालने की आदत। इस दुर्बलता को सनकीपन भी कहा जा
सकता है।
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