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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि

अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : श्रीवेदमाता गायत्री ट्रस्ट शान्तिकुज प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4105
आईएसबीएन :000

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गुरुदेव की वचन...

पूर्वाभास और अतींद्रिय दर्शन के वैज्ञानिक आधार


सामान्यतः वर्तमान में घटित होने वाली घटनाएँ ही उसमें जीवित प्रतीत होती हैं। भूतकाल में जो कुछ घटित हो चुका, वह स्मृतियों में शेष रह जाता है और भविष्य में क्या होने वाला है ? उसका अनुमान अनुभव नहीं होता, क्योंकि वह अनागत है। सत्य और साक्षात् वही लगता है, जो सामने है तथा वर्तमान है। भूतकाल में जो कुछ घटित हुआ—वह सत्य तो है, पर वर्तमान में उसका कोई अस्तित्व नहीं है, इसलिए भूत और भविष्य का सामान्य व्यक्ति के लिए कोई अस्तित्व नहीं है, पर वस्तुत: काल चेतना में ऐसा कोई भेद नहीं है। वहाँ न भूत है, न वर्तमान और न भविष्य। इस प्रकार का कोई विभाजन काल चेतना में है ही नहीं। समग्र काल चेतना अपने आप में एक संपूर्ण इकाई है।

इस तथ्य को अब विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। पहले वैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार की मान्यताओं का कैसा उपहास उडाया जाता था और इन्हें अवास्तविक-निराधार कहा जाता था। अब वैज्ञानिक भी नये शोध प्रयासों के द्वारा प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर अपनी मान्यताओं में परिवर्तन करने लगे हैं। यह तो पहले भी माना जाता रहा है कि, आवश्यक नहीं कि जो बात एक समय सही मानी जाती है, वही दूसरे समय भी उसी प्रकार मानी जाती रहे। इसी प्रकार यह भी आवश्यक नहीं कि, जिस बात को आज अप्रामाणिक माना जाता है, उसे भविष्य में भी वैसा ही समझा जाए। उदाहरण के लिए, अपने समय के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलीलियो ने ब्रह्मांडीय गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मानने से इनकार किया था। वे पृथ्वी की आकर्षण शक्ति को तो मानते थे, पर यह स्वीकार नहीं करते थे कि, एक ग्रहपिंड की आकर्षण शक्ति दूसरों को भी प्रभावित करती है और इसी आधार पर एक-दूसरे के साथ बँधे हुए हैं। न्यूटन तक ने ग्रहों के आपस में बँधे रहने वाले गुरुत्वाकर्षण को बहुत पीछे और बड़ी कठिनाई के बाद स्वीकार किया था, पर आज वे विरोध ठंडे पड़ गये और ग्रहों के बीच गुरुत्वाकर्षण की बंधन-श्रृंखला की वास्तविकता स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है।

मात्र एक महत्त्वपूर्ण खोज किस तरह विज्ञान में कई प्रतिष्ठित मान्यताओं को गलत सिद्ध कर देती है, यह सुविदित तथ्य है। हमारा यह विश्व कब अस्तित्व में आया ? इसके बारे में कुछ वर्ष पहले तक खगोलविदों की स्थापना थी कि, इस विश्व की उम्र लगभग १० अरब वर्ष है, पर १९७१-७२ में दूरस्थ ज्योति-पुंजों के प्रकाश को ग्रहण करने वाले यंत्रों द्वारा ऐसा प्रकाश ग्रहण किया गया, जो अपने स्रोत स्थान से २० अरब वर्ष पहले चला था। इससे स्पष्ट हुआ कि, ज्ञेय विश्व कम से कम २० अरब वर्ष पुराना है। इसी से यह भी स्पष्ट है कि, कोई भी नई जानकारी किसी भी क्षण इस मान्यता को लाँघ सकती है। विश्व सचमुच कितना पुराना तथा बड़ा है, यह अज्ञात एवं अनिश्चित है।

इस समय विश्व की उत्पत्ति के बारे में वैज्ञानिकों की मुख्य-मुख्य परिकल्पनाएँ ये हैं-

एक परिकल्पना के अनुसार अरबों वर्ष पूर्व संपूर्ण विश्व का द्रव्य एक पुंजीभूत महापिंड के रूप में था। नाभिकीय कणों का सघन संपीडन किया जाए, तो एक घन सेंटीमीटर स्थान में करोड़ों टन द्रव्य समा सकता है। इसीलिए संपूर्ण विश्व द्रव्य का महापिंड में संपीडन संभव है।

इस महापिंड का विस्फोट हुआ और विस्तार होने लगा। उसी से मंदाकिनियाँ-नीहारिकाएँ बनीं, ग्रह, नक्षत्र बने, यह विस्तार अभी जारी है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि, दूरस्थ आकाशगंगाएँ हम से लगातार दूर भाग रही हैं। उनमें पृथ्वी से दूर हटने की गति पृथ्वी से उनकी दूरी के अनुपात में है। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है।

मंदाकिनियों के लगातार दूर भागने की बात की पुष्टि विख्यात वैज्ञानिक प्रो० फ्रेड हायल के एक परीक्षण से हुई है। सुदूरस्थ आकाशगंगाओं से पृथ्वी तक आने में आकाश-तरंगों का कंपन बढ़ जाता है। दूर से आने वाले प्रकाश का झुकाव, वर्णपट प्राप्त करने पर नीले रंग की ओर होता है और दूर जाने वाले प्रकाश स्रोत के प्रकाश का झुकाव लाल रंग की ओर होता है। आकाशगंगाओं से आने वाली प्रकाश तरंगों के प्रकाश का वर्णपट प्राप्त करने पर, उस वर्णपट का झुकाव लाल रंग की ओर पाया गया। इससे पता चला कि आकाशगंगाएँ दूर जा रही हैं। माउंट पोलोयर बेधशाला की दूरबीन से भी आकाशगंगाओं के दूर हटने की प्रक्रिया देखी गई। एक सिद्धांत यह है कि विश्व जैसा अभी है, वैसा ही आरंभ से है। आकाशगंगाएँ दूर भाग रही हैं तो पास भी आ रही होंगी, जो अभी हमें दीखती नहीं। वस्तुतः यह सिद्धांत प्रो० हायल का है, जिसे 'समतुलित अवस्था का सिद्धांत' कहते हैं। प्रो० फ्रेड हायल ने ही सर्वप्रथम यह खोजा था कि, आकाशगंगाएँ पृथ्वी से दूर हट रही हैं। इससे जहाँ कुछ वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि, ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है। लेकिन स्वयं प्रो० हायल का निष्कर्ष यह था कि पुरानी मंदाकिनियाँ जो दूर भागती दीखती हैं, अस्तित्वहीन होती रहती हैं और मंदाकिनियाँ जन्म लेती रहती हैं। इससे ब्रह्मांड की पिंड संख्या स्थिर रहती है और घनत्व अपरिवर्तित।

टामस गोल्ड, हर्मन वांडो, वेरोजोफ, वेल्मामिनोफ आदि भी इसी सिद्धांत को मानते हैं।

एक मत यह है कि प्रारंभ में प्लाज्मा रूप में विश्व का समस्त द्रव्य एकत्र था। वह संतुलन की स्थिति थी। धीरे-धीरे असंतुलन का आरंभ हुआ। प्लाज्मा के कणों तथा प्रतिकणों के विस्फोट हुए। इससे फोटॉन-कण निकले। फोटॉन कणों यानी प्रकाश के कणों से परमाणु बने। समय बीतने पर परमाणु बादल बने, उन्हीं से क्रमशः विविध आकाशीय पिंड अस्तित्व में आए। यह परिकल्पना आल्फवेन तथा क्लाइन की है। इसका आधार कणों तथा प्रतिकणों की खोज है।

कणों तथा प्रतिकणों के ही आधार पर द्रव्य और प्रतिद्रव्य की धारणा परिकल्पित की गई है। गोल्डहारन ने एक परिकल्पना प्रस्तुत की है कि, पुंजीभूत द्रव्य का महापिंड विखंडित होते ही दो विश्वों में बँट गया—एक द्रव्यमय विश्व, दूसरा प्रतिद्रव्यमय विश्व।

गोल्डहारन व अन्य कुछ वैज्ञानिक एक सर्वथा भिन्न प्रतिद्रव्यमय विश्व की परिकल्पना करते हैं, तो कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार इसी ज्ञेय विश्व में प्रतिद्रव्य वाली आकाशगंगाएँ अस्तित्व में हैं, किंतु हमें उनका ज्ञान अभी संभव नहीं, क्योंकि हम तो मात्र आकाशीय पिंडों से उत्सर्जित विकिरण द्वारा ही उन पिंडों के बारे में जान पाते हैं और द्रव्य तथा प्रतिद्रव्य का विकिरण एक जैसा ही होता है, इसलिए हम उसे अलग से पहचानने में असमर्थ हैं।

विज्ञा फेनयन माँ के अनुसार ब्रह्मांडव्यापी प्रतिपदार्थ के अति सूक्ष्म घटक-पाजिट्रॉन-काल से पीछे की ओर भी चलते हैं और उनका प्रवाह भविष्य की ओर न होकर भूतकाल की ओर लौटता है। ठीक इसी प्रकर अंतरिक्षवेत्ता फ्रेड हायल का कथन है कि, समय आमतौर पर भूतकाल की ओर गतिशील हो सकता है।

अंतरिक्ष विज्ञान के शोधकर्ता इस तथ्य का समर्थन कर रहे हैं कि, अपने सौरमंडल में तो नहीं, पर अनंत आकाश में ऐसे कितने ही ग्रह हैं, जो पदार्थ से नहीं 'प्रतिपदार्थ से बने है। वहाँ भरे हुए परमाणुओं को 'टेकयॉन' नाम दिया गया है। उनकी चाल प्रकाश से भी तीव्र तथा गति भविष्य की ओर न होकर भूतकाल की ओर चल रही है।

साधारणतया हम वर्तमान को भविष्य के साथ जोड़ते हैं। भविष्य की तैयारी के लिए वर्तमान को नियोजित करते हैं। कल्पनाएँ और योजनाएँ भविष्य निर्धारण के लिए जुटी रहती हैं।

आकांक्षाओं की पूर्ति आगे चलकर होने की ही बात सोची जाती है और उसी पर विश्वास किया जाता है। अपनी परिस्थितियों में यही संभव भी है। जल की धारा जिस दिशा में बह रही हो, हवा जिस ओर उड़ रही हो-उसी में प्रगति की उपलब्धियों की आशा करना सहज स्वाभाविक है। भूतकाल से तो इतना ही लाभ लिया जाता है कि, उसके आधार पर संग्रह किए गए अनुभवों से लाभ उठाया जाए और भावी गतिविधियों के निर्धारण में उनका ध्यान रखा जाए। मीठी-कड़वी स्मृतियाँ संजोये रहकर उनके दृश्य चित्रों से अठखेलियाँ करते रहने के अतिरिक्त और कोई बड़ा प्रयोजन उनके द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता।

किंतु तथ्य इससे भिन्न भी है। समय की गति पीछे की दिशा में लौट सकने की बात आज तो ठीक से समझ में भी नही आती और उस पर विश्वास करने को भी. जी नहीं करता, इतने पर भी तथ्य तो अपने स्थान पर बने रहेंगे। अन्य प्राणी वर्तमान तक ही सीमित रहते हैं। उनकी भविष्य कल्पना आज का आधार पाने के संबंध में कुछ अनुमान भर लगा सकती है। वे हमारी तरह भविष्य कल्पना नहीं कर सकते। ठीक इसी प्रकार हम भी भूतकाल की कुछ अधिक प्रभावोत्पादक घटनाओं की स्मृति तक ही सीमित रहते हैं। यदि भविष्य कल्पना में भूतकाल के अनुभव अपना समुचित योगदान दे सकें तो भविष्य निर्धारण सही भी होगा और सरल भी, किंतु भूत के अनुभवों का लाभ तो हम यत्किंचित् ही उठा पाते हैं।

मोटर और रेलगाड़ी प्रायः आगे की ओर ही चलती है, पर उन्हें पीछे की दिशा में लौटाते हुए भी कोई विशेष कठिनाई नहीं होती। इसी प्रकार समय का आगे की तरह पीछे लौट सकना भी संभव हो सकता है। आमतौर से नदी में प्रवाह की दिशा में ही तैरा और बहा जाता है, किंतु कुशल तैराक के लिए भी संभव है कि, वह उल्टी दिशा में धारा को चीरता हुआ तैर सके। विज्ञान के तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि, भूत भी सर्वथा नष्ट नहीं हो जाता। वह मस्तिष्क स्मृति-पटलों की तरह धुंधला भर होता है, अपना अस्तित्व बनाये ही रहता है। इसी प्रकार भूत गुजर भले ही गया है, पर उसका अस्तित्व इस ब्रह्मांड में अपनी सत्ता अक्षुण्ण रखे हुए है। राम और हनुमान के शरीर अब नहीं रहे, पर उनका , व्यक्तित्व और कर्तृत्व अभी भी इस संसार में मौजूद है। यदि कोई मार्ग खोजा जा सके तो हम उल्टी दिशा में तैरने वाले तैराक की तरह उन महामानवों के संपर्क का उसी प्रकार लाभ उठा सकते हैं, जैसा कि उनके सहचर उठाया करते थे।


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    अनुक्रम

  1. भविष्यवाणियों से सार्थक दिशा बोध
  2. भविष्यवक्ताओं की परंपरा
  3. अतींद्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि व आधार
  4. कल्पनाएँ सजीव सक्रिय
  5. श्रवण और दर्शन की दिव्य शक्तियाँ
  6. अंतर्निहित विभूतियों का आभास-प्रकाश
  7. पूर्वाभास और स्वप्न
  8. पूर्वाभास-संयोग नहीं तथ्य
  9. पूर्वाभास से मार्गदर्शन
  10. भूत और भविष्य - ज्ञात और ज्ञेय
  11. सपनों के झरोखे से
  12. पूर्वाभास और अतींद्रिय दर्शन के वैज्ञानिक आधार
  13. समय फैलता व सिकुड़ता है
  14. समय और चेतना से परे

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