आचार्य श्रीराम शर्मा >> अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमिश्रीराम शर्मा आचार्य
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गुरुदेव की वचन...
पूर्वाभास और स्वप्न
सन् १९४३ की रात, द्वितीय महायुद्ध, पैसफिक सागर में तेरहवीं एअर फोर्स बटालियन के कमांडर जनरल नेथान एफ० ट्वीनिंग दुर्भाग्यवश युद्ध के दौरान अपने बेड़े से अलग-अलग पड़ गये। वे एस्पेराइट सांतो एअर बेस के लिए अपने चौदह साथियों के साथ रवाना हुए थे। युद्ध के दिन थे ही। बहुत खोज की गई, पर उनका व उनके साथियों का कुछ भी न चला।
जनरल नेथान के पत्नी उस समय अमेरिका में अपने घर में रह रही थीं। प्रगाढ निद्रा के समय उन्हें लगा, उनके पति उनके पास खड़े हैं और बेचैनीपूर्वक उसे जगा रहे हैं। श्रीमती ट्वीनिंग ने अपने पति का मुँह और हाथ स्पष्ट देखा। उन्होंने पति के हाथ पकड़ने चाहे, तभी उनकी एकाएक नींद टूट गई। स्वप्न उन्होंने पहले भी देखे थे, किंतु यह स्वप्न उनसे विचित्र था। जग जाने पर भी वह ट्वीनिंग को इस प्रकार रोमांचित कर रहा था कि, उनकी गर्दन के बाल सिहरकर खड़े हो गये थे।
उसके बाद उन्हें नींद नहीं आई। रात पूरी जागकर बिताई। सबेरा हो चला था। तभी एकाएक टेलीफोन की घंटी बजी। उनकी एक सहेली का फोन था। उसके पति भी दक्षिणी पैसफिक सागर पर सैनिक अफसर थे, इसलिए श्रीमती के हृदय में रात की रोमांचकारी घटना ने फिर एक बार उत्तेजना उत्पन्न की। उन्होंने जल्दी-जल्दी में पूछा—कहो सब ठीक तो है ना ! उधर से आवाज आई–सब ठीक है, पर मेरा मन न जाने क्यों बड़ी देर से बार-बार तुम्हें ही याद कर रहा है। मैंने तुम्हारे पास आने का निश्चय किया है, कहीं जाना मत, मैं दो-तीन दिन में तुम्हारे पास आ रही हूँ।
श्रीमती ट्वीनिंग को अब भी आशंका थी कि, उसे कोई बात कहनी है, जो अभी छिपाई जा रही है, किंतु जब वे घर आईं तब भी ऐसी कोई बात उन्होंने नहीं बताई। इतने पर भी श्रीमती ट्वीनिंग की उस स्वप्न के प्रति आशंका गई नहीं।
दो दिन रहकर जब उनकी सहेली वापस लौट गई, तब श्रीमती ट्वीनिंग को सरकारी तौर पर जानकारी दी गई, कि उनके पति अपने बेड़े के साथ लापता हैं, उनकी खोज की जा रही है। खोज करने वाले अधिकारी नियुक्त कर दिये गए हैं। इस समाचार से उनका मन बड़ा व्यग्र हो रहा था। थोड़ी ही देर बाद दूसरी सूचना मिली, जिसमें यह बताया गया था कि, जहाज मिल गया है और श्री ट्वीनिंग शीघ्र ही उनसे मिलने घर आ रहे हैं।
भेंट होने पर श्रीमती ट्वीनिंग ने बताया कि, सचमुच उस दिन ठीक उसी समय वे संकट में पड़े थे, जिस समय उन्होंने स्वप्न देखा। उन्होंने यह भी बताया कि कितने आश्चर्य की बात है कि-ठीक उसी समय मुझे तुम्हारी (उनकी पत्नी) तीव्र याद आई थी। इस पारस्परिक अनुभूति का कारण क्या हो सकता है ? इसके अतिरिक्त जिस ऑफीसर ने खोज की, वह उनकी सहेली का ही पति था। उसे किसने वहाँ जाने लिए प्रेरित किया, यह सब रहस्य हैं। जीवन में जो कुछ प्रकट है, वही सत्य नहीं, वरन् सत्य का सागर तो अदृश्य में छुपा हुआ है और वह विचित्र संयोगों के मध्य प्रकट हुआ करता है।
सत्य की खोज में "इन सर्च ऑफ दि ट्रथ" पुस्तक में इस घटना का हवाला देते हुए श्रीमती रूथ मांटगुमरी लिखती हैं कि, युद्धों के समय पाशविक वृत्तियाँ एकाएक आत्म-मुखी हो उठती हैं, तब किन्हीं भी व्यक्तियों को अतींद्रिय अनुभूतियाँ स्पष्ट रूप से होने लगती हैं। युद्ध के मैदानों में लड़ने वाले सैनिक और उनके संबंधी-रिश्तेदारों के बीच एक प्रगाढ़ भावुक संबंध स्थापित हो जाता है, वही इन अति मानसिक अनुभूतियों की सत्यता का कारण होता है। ध्यान की गहन अवस्था में होने वाले भविष्य की घटनाओं के पूर्वाभास भी इसी कारण होते हैं कि, उस समय एक ओर से मानसिक विद्युत दूसरी ओर से पूरी क्षमता के साथ संबंध जोड़ देती और जिस प्रकार लेजर यंत्र, दूरदर्शी (टेलीविजन) यंत्र हमें दूर के दृश्य व समाचार बताने-दिखाने लगते हैं, उसी प्रकार यह
भाव संबंध हमें दूरवर्ती स्थानों की घटनाओं के सत्य आभास कराने लगते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध की ही एक अन्य घटना का उल्लेख अपने इसी अध्याय में करते हुए श्रीमती रूथ मांटगुमरी ने लिखा है कि, चेकोस्लोवाकिया तथा थाईलैंड के भूतपूर्व राजदूत—जो उसके बाद ही जापान के राजदूत नियुक्त हुए, श्री जानसन तब तक मुकड़ेन नगर में थे। युद्ध की आशंका से बच्चों को अलग कर दिया गया। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती पैट्रोसिया जॉन ने कैलीफोर्निया के लैगुना बीच में एक मकान ले लिया और वहीं रहने लगी।
इस बीच श्रीमती जॉनसन ने कई बार जापान के समाचार जानने के लिए अपना रेडियो मिलाया, पर रेडियो ने वहाँ का मीटर पकड़ा ही नहीं। एक दिन पड़ौस की एक स्त्री ने बताया कि, उनका रेडियो जापानी प्रसारणों को (रेडियो ब्रांड कास्टिंग) खूब अच्छी तरह पकड़ लेता है। तीन महीने तक श्रीमती जॉनसन ने इस तरफ कुछ ध्यान ही नहीं दिया। एक दिन उन्हें एकाएक रेडियो सुनने की इच्छा हुई। रेडियो का स्विच घुमाया ही था कि, आवाज आई-हम रेडियो स्टेशन मुकड़ेन से बोल रहे हैं। अब आप एक अमेरिकन ऑफीसर बी० जानसन को सुनेंगे।"
विस्मय विस्फारित श्रीमती जॉनसन, एकाग्र चित्त बैठ गईं अगले ही क्षण जो आवाज आई, वह उनके पति की ही आवाज थी। वे बोल रहे थे-मैं बी० एलेक्सिस जॉनसन मुकड़ेन से बोल रहा हूँ, जो भी कैलिफोर्निया अमेरिका का नागरिक इसे सुने, कृपया मेरी पत्नी पैट्रोसिया जॉनसन या माता-पिता श्री व श्रीमती कार्ल टी० जॉनसन तक पहुँचाये और बताए कि, मैं यहाँ कैद में हूँ, स्वस्थ हूँ, खाना अच्छा मिलता है और आशा है कैदियों की अदला-बदली में शीघ्र ही छूट जाऊँगा, अपनी पत्नी और बच्चे को. प्यार भेजता हूँ।"
दो माह पीछे जॉनसन कैदियों की बदली में छूटकर आ गए। पैट्रोसिया पति से मिलने गई, तो वहाँ उसे पति से क्षणिक भेंट होने
दी, क्योंकि कुछ समय के लिए श्री एलेक्सिस जॉनसन को तुरंत जहाज पर जाना था। पैट्रोसिया को थोड़ी ही देर में घर लौटना पड़ा। उसकी सहेलियाँ उसे घुमाने ले गईं पर अभी वे एक सिनेमा में बैठी ही थी कि, पैट्रोसिया एकाएक उठकर बाहर निकल आई और अपने घर को फोन मिलाया, तो दूसरी ओर से अलेक्सिस जॉनसन बोले और बताया कि मैं यहाँ हूँ मुझे जहाज में नहीं जाना पड़ा। पैट्रोसिया सिनेमा छोड़कर घर चली आई।
३ माह तक कभी भी रेडियो सुनने की आवश्यकता अनुभव न करना और ठीक उसी समय पति संदेशा देने वाले हों, रेडियो सुनने की अंतःकरण की तीव्र प्रेरणा का रहस्य क्या हो सकता है ? कौन-सी शक्ति थी, जिसने पैट्रोसिया को सिनेमा के समय फोन पर पहुँचने की प्रेरणा दी ? जब इन बातों पर विचार करते हैं, तो पता चलता है, कोई एक अदृश्य शक्ति है अवश्य, जिसने मानव मात्र को एक भावनात्मक संबंध में बाँध अवश्य रखा है। हम जब तक उसे नहीं जानते, तब तक मनुष्य शरीर की सार्थकता कहाँ ? दूरवर्ती स्वजनों के साथ घटित होने वाली घटनाओं तथा भविष्यवक्ताओं का पूर्वाभास कितनी ही बार विचित्र ढंग से सामने आता है, न तो उन्हें झुठलाया जा सकता है और न उनका आधार अथवा कारण समझ में आता है।
इस संदर्भ में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डॉ० नेलसन वाल्ट का कथन है कि मनुष्य के अंदर एक बलवती आत्म-चेतना रहती है, जिसे जिजीविषा एवं प्राणधात्री शक्ति कह सकते हैं। यह न केवल रोग निरोध अथवा आत्म-रक्षा जैसे अस्तित्व संरक्षण के अविज्ञात साधन जुटाती है, वरन् चेतना जगत् में चल रही उन हलचलों का पता लगा लेती है, जो अपने आगे विपत्ति के रूप में आने वाली है। पूर्वाभास बहुधा अपने ऊपर तथा अपने संबंधियों के ऊपर आने वाले संकटों के ही होते हैं। सुख-सुविधा की परिस्थितियों का ज्ञान कभी-कभी या किसी-किसी को ही हो पाता है।
परा मनोविज्ञानी हैराल्ड कहते हैं कि, स्वप्न में ही नहीं, अपितु जाग्रत् स्थिति में भी कई बार बिल्कुल सही और ऐसे पूर्वाभास होते पाये गए हैं, जिनका सामयिक परिस्थितियों से कोई सीधा संबंध नहीं था। उन्होंने फ्रांसीसी उड्डयन संस्थान में काम करने वाले एक यान चालक की विमान दुर्घटना से मृत्यु होने का उल्लेख किया है और बताया है कि, ठीक दुर्घटना के समय ही रास्ता चलती उसकी एक मात्र बहिन को यह अनुभव हुआ था कि, अभी-अभी उनका भाई वायुयान दुर्घटना में मरा है। दूसरे दिन ठीक वैसा ही समाचार भी उसे मिल गया। इस प्रकार के प्रसंगों में व्यक्तियों की पारस्परिक आत्मीयता की सघनता का बहुत हाथ रहता है।
मनःशास्त्री हेनब्रुक ने अपनी शोधों में इस बात का उल्लेख किया है कि, अतींद्रिय क्षमता पुरुषों की अपेक्षा नारियों में कहीं अधिक होती है। दिव्य अनुभूतियों की अधिकता उन्हें ही क्यों मिली ? इसका कारण वे नारी स्वभाव में कोमलता, सहृदयता जैसे सौम्य गुणों के आधिक्य को ही महत्त्व देते हैं। उनकी दृष्टि में अध्यात्म क्षेत्र में नारी को अपनी प्रकृति प्रदत्त विशेषताओं के कारण सहज ही अधिक सफलता मिलती रहती है।
बीज रूप से यह अलौकिक एवं अतींद्रिय क्षमता हर किसी में मौजूद है और यह संभावना हर किसी के सामने खुली पड़ी है कि, उस दिव्य शक्ति को प्रयत्नपूर्वक विकसित करके न केवल अपना वरन् दूसरों का भी भला कर सके।
मनुष्य शरीर में इनकी संभावना किन स्थानों पर है ? इस संबंध में भारतीय योगियों की मान्यता है कि, मेरुस्तंभ के शिखर पर—सीधे ऊपर खोपड़ी के बीच में, बाल स्थान से थोड़ा हटकर लालिमा लिए हल्के भूरे रंग की कोण की शक्ल की वस्तु मस्तिष्क की पिछली कोठरी के आगे तीसरी कोठरी की तह से मिली हुई पायी जाती है। यह गुच्छी का पुंज है, जिसमें छोटे-छोटे खुरखुरे चूनेदार अणु होते हैं। इन्हें "मस्तिष्क बालुका" कहा जाता है।
पश्चिमी वैज्ञानिक इसे पाइनिअल ग्लैंड या पाइनिअल बॉडी कहते हैं, पर वे अभी उसके कार्य अभिप्राय और प्रयोग से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। कोरी जानकारियाँ ही इस संबंध में मिलती हैं।
दूरवर्ती वस्तुओं और सूक्ष्म से सूक्ष्म मन तक लगाव का कारण योगी लोग इसी स्थान को मानते हैं। यह आत्मा की ज्ञान- शक्ति का कोष कहा जा सकता है। इस अवयव के लिए यह आवश्यक नहीं कि, इसमें कोई बाह्य द्वार हो—जैसा कि कान, नाक, मुँह में होता है। इनसे उठने वाले विचार-कंपन स्थूल पदार्थों का भेदन भी उसी तरह कर जाते हैं, जिस तरह ‘एक्सरेज'। वह सूक्ष्म विचार कंपन पहाड़ों की चट्टानों, लोहे आदि का भी भेदन कर, उसके भीतर की आणविक संरचना का ज्ञान प्राप्त करा सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि, जमशेद जी टाटा को खनिज और इस्पात का कारखाना खड़ा करने का स्थान स्वामी विवेकानंद ने लंदन में तब बताया था, जब श्री टाटा जी वहाँ उसकी स्वीकृति लेने गए थे। खनिज पदार्थ, पानी और तेल के कुओं तक का पता धरती के भीतर हजारों फीट निचाई में हों, तो वहाँ भी यह विचार-कंपन पहुँचकर वहाँ की स्थिति का रहस्य आत्मा को बता सकते हैं।
उन दिनों पाकिस्तान से दिल्ली आए हुए ४० हजार शरणार्थियों के लिए फरीदाबाद के निकट एक बस्ती बसाई जा रही थी। योजना पूरी तैयार थी, पर पानी का विकट प्रश्न था। यमुना वहाँ से १८ मील दूर थी। इतनी लंबी पाइप लाइन का तुरंत बिछाना कठिन भी था और खर्चीला भी। इंजीनियर पहले ही बता चुके थे कि, उस इलाके की जमीन में नलकूप लगाए जाने योग्य पानी नहीं है। समस्या बड़ी विकट थी।
तभी श्री नेहरू को याद आया कि, जामसाहब नवानगर ने एक बार उनसे किसी ऐसे व्यक्ति की चर्चा की थी, जिसमें भूमिगत पानी का पता लगाने की अद्भुत शक्ति है। तत्काल जामसाहब के पास संदेश (पहुँचाया गया और वह व्यक्ति साधारण किसान की वेषभूषा वाला "पानी वाला महाराज" दिल्ली जा पहुंचा। महाराज को लेकर उस क्षेत्र की ३५०० एकड़ जमीन का पर्यवेक्षण किया गया। उसने पैर से ठोक-ठोक कर कई जगह की जमीन जाँची और दस जगहों पर निशान लगवाये, कि यहाँ पानी है, तदनुसार नलकूप खोदे गए और सचमुच ही वहाँ जल के गहरे स्रोत निकले। इनमें से हर कुआँ अभी तीन हजार गैलन पानी हर घंटे की गति से दे रहा है। इससे पूर्व इस पथरीले इलाके में इतना पानी मिलने की किसी इंजीनियर ने कल्पना भी नहीं की थी।
मस्तिष्क के सूक्ष्म स्नायु कोष बेतार के तार की तरह अदृश्य जगत् के सूक्ष्म से सूक्ष्म कंपन को भी पकड़ लेता है, इसलिए जो बात मन में तो न हो—अवचेतन मन में हो, उसे भी जाना जा सकता है। उदाहरण के लिए कोड़ी वाले बैल देखे होंगे, जो अपने स्वामी के संकेत पर बता देते हैं कि-५ रुपये का नोट किसकी जेब में है ? बैल चलता है और उस आदमी के पास जा पहुँचता है। वह आदमी पूछता है—इनमें 'राम-शंकर' कौन है उस समय भीड़ में खड़ा रामशंकर अपने मन में अपना नाम भी नहीं लेता, उस समय तो उसे केवल कौतूहल होता है, पर चूँकि उसके अवचेतन मस्तिष्क में यह बात रहती है कि मैं रामशंकर हूँ, उसी को बैल का वह अवयव पकड़ लेता है और उस व्यक्ति के पास जाकर बता देता है।
इस तरह के खेल प्रायः सभी ने देखे होंगे। अभी तक इनको चमत्कार माना जाता है, पर मनुष्येतर जीवों में, सभी में इस तरह की ज्ञान-शक्ति के आधार पर यह पता लग सकता है कि, आत्मा का अस्तित्व मनुष्य में ही नहीं, अन्य प्राणियों में भी है। जिस दिन यह मान्यता लोगों के मस्तिष्क में उतर जायेगी, उसी दिन पुनर्जन्म व कर्मफल के अनेक रहस्य भी मालूम होने लगेंगे और तब अब की तरह चोरी, छल, कपट, धोखा, अपराध, अत्याचार करने वाले लोगों को मालूम होगा कि, इनके कारण दूसरी योनियों में रहकर किस तरह कष्ट उठाना पड़ा और देहासक्ति से अब किस तरह बचा जा सकता है ?
अध्यात्म विज्ञान में स्थान-स्थान पर प्रकाश की साधना और प्रकाश की याचना की चर्चा मिलती है। यह प्रकाश बल्ब, बत्ती अथवा सूर्य, चंद्र आदि से निकलने वाला उजाला नहीं, वरन् वह परम ज्योति है, जो इस विश्व चेतना का आलोक बनकर जगमगा रही है। गायत्री का उपास्य सविता देवता इसी परम ज्योति को कहते हैं। इसका अस्तित्व ऋतंभरा प्रज्ञा के रूप में प्रत्यक्ष और कण-कण में संव्याप्त जीवन-ज्योति के रूप में प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर भी देख सकता है। इसकी जितनी मात्रा, जिसके भीतर विद्यमान हो, समझना चाहिए कि, उसमें उतना ही अधिक ईश्वरीय अंश आलोकित हो रहा है।
मस्तिष्क के मध्य भाग से प्रकाश कणों का एक फौआरा सा फूटता रहता है। उसकी उछलती हुई तरंगें एक वृत्त बनाती हैं और फिर अपने मूल उद्गगम में लौट जाती हैं। यह रेडियो प्रसारण और संग्रहण जैसी प्रक्रिया है, ब्रह्मरंध्र से छूटने वाली ऊर्जा अपने भीतर छिपी हुई भाव-स्थिति को विश्व-ब्रह्मांड में ईथर कंपनों द्वारा प्रवाहित करती रहती है, इस प्रकार मनुष्य अपनी चेतना का परिचय और प्रभाव समस्त संसार में फेंकता रहता है। फुहारे की लौटती हुई धाराएँ अपने साथ विश्वव्यापी असीम ज्ञान की नवीनतम घटनात्मक जानकारियाँ लेकर लौटती हैं, यदि उन्हें ठीक तरह समझा जा सके, ग्रहण किया जा सके, तो कोई भी व्यक्ति भूतकालीन और वर्तमान काल की अत्यंत सुविस्तृत और महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति में प्रवाह ग्रहण करने की और प्रसारित करने की जो क्षमता है, उसका माध्यम यह ब्रह्मरंध्र अवस्थित ध्रुव संस्थान ही है। पृथ्वी पर अन्य ग्रहों का प्रचुर अनुदान आता है तथा उसकी विशेषताएँ अन्यत्र चली जाती हैं। यह आदान-प्रदान का कार्य ध्रुव केंद्रों द्वारा संपन्न होता है। शरीर के दो ध्रुव हैं—एक मस्तिष्क, दूसरा जनन गह्वर। चेतनात्मक विकिरण मस्तिष्क से और शक्तिपरक ऊर्जा प्रवाह जनन गह्वर से संबंधित है। सूक्ष्म आदान-प्रदान की अति महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया इन्हीं केंद्रों के माध्यम से संचालित होती है।
शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप तेजोवलय की स्थिरता बनती है। यदि स्थिति बदलने लगे, तो प्रकाश पुंज की स्थिति भी बदल जाएगी। इतना ही नहीं, समय-समय पर मनुष्य के बदलते हुए स्वभाव तथा चिंतन स्तर के अनुरूप उसमें सामाजिक परिवर्तन होते रहते हैं। सूक्ष्मदर्शी उसकी भिन्नताओं को रंग बदलते हुए परिवर्तनों के रूप में देख सकते हैं। शांति और सज्जनता की मनःस्थिति हलके नीले रंग में देखी जाएगी। विनोदी, कामुक, सत्तावान्, वैभवशाली, विशुद्ध व्यवहार कुशल स्तर की मनोभूमि पीले रंग की होती है। क्रोधी, अहंकारी, क्रूर, निष्ठुर, स्वार्थी, हठी और मूर्ख मनुष्य लाल वर्ण के तेजोवलय से घिरे रहते हैं, हरा रंग सृजनात्मक एवं कलात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। गहरा बैंगनी चंचलता और अस्थिर मति का प्रतीक है। धार्मिक, ईश्वर भक्त और सदाचारी व्यक्तियों की आभा केसरिया रंग की होती है। इसी प्रकार विभिन्न रंगों का मिश्रण मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव के परिवर्तनों के अनुसार बदलता रहता है। यह तेजोवलय सदा स्थिर नहीं रहता। यह रंग स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं हैं, वरन् मनोभूमि में होने वाले परिवर्तन, शरीर से निःसृत होते रहने वाले ऊर्जा कंपनों की घटती-बढ़ती संख्या के आधार पर आँखों को अनुभव होते हैं। वैज्ञानिक उन्हें "फ्रीक्वेन्सी ऑफ दी वेव्स" कहते हैं।
दिव्य दर्शन (क्लेयर वाइन्स), दिव्य अनुभव (माइकोमैक्ट्री), प्रभाव प्रेषण (टेलिपैथी), संकल्प प्रयोग (सजैशन) जैसे प्रयोग थोड़ी आत्मशक्ति विकसित होते ही आसानी से किए जा सकते हैं। इन विद्याओं पर पिछले दिनों से काफी शोध कार्य होता चला आ रहा है और उन प्रयासों के फलस्वरूप उपयोगी निष्कर्ष सामने आए हैं। परामनोविज्ञान, अतींद्रिय विज्ञान, मैटाफिजिक्स जैसी चेतनात्मक विद्यायें भी अब रेडियो विज्ञान तथा इलेक्ट्रॉनिक्स की ही तरह विकसित हो रही हैं। अचेतन मन की सामर्थ्य के संबंध में जैसे-जैसे रहस्यमय जानकारियों के पर्त खुलते हैं, वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता जाता है कि नर-पशु लगने वाला मनुष्य वस्तुतः असीम और अनंत क्षमताओं का भंडार है। कठिनाई उतनी भर है कि, उसकी अधिकांश विकृतियाँ प्रसुप्त और अविज्ञात-स्थिति में पड़ी हैं।
प्रकाश रश्मियों की लंबाई एक इंच के सोलह से तीस लाखवें हिस्से के बराबर होती है। रेडियो पर सुनी जाने वाली ध्वनि तरंगों की गति एक सेकंड में एक लाख छियासी हजार मील की होती है। वे एक सेकंड में सारी धरती की सात परिक्रमा कर लेती हैं। शब्द और प्रकाश की तरंगों का आकार एवं प्रवाह इतना सूक्ष्म एवं गतिशील है कि, उन्हें बिना सूक्ष्म यंत्रों की सहायता से हमारी इंद्रियाँ अनुभव नहीं कर सकती हैं।
डो० जे० सी० ट्रस्ट ने 'अणु और आत्मा' ग्रंथ में स्वीकार किया है कि, मानव अणुओं की प्रकाश-वाष्प न केवल मनुष्यों में वरन अन्य जीवधारियों, वृक्ष, वनस्पति, औषधि आदि में भी होती है। यह प्रकाश अणु ही जीवधारी के यथार्थ शरीरों का निर्माण करते हैं। खनिज पदार्थों से बना मनुष्य या जीवों का शरीर तो तभी तक स्थिर रहता है, जब तक यह प्रकाश अणु शरीर में रहते हैं। इन प्रकाश अणुओं के हटते ही स्थूल शरीर बेकार हो जाता है, फिर उसे जलाते या गाड़ते ही बनता है। खुला छोड़ देने पर तो उसकी सड़ांध से उसके पास एक क्षण भी ठहरना कठिन हो जाता है।
स्वभाव, संस्कार, इच्छाएँ, क्रिया-शक्ति-यह सब इन प्रकाश अणुओं का ही खेल है। हम सब जानते हैं कि, प्रकाश का एक अणु. (फोटॉन) भी कई रंगों के अणुओं से मिलकर बना होता है। मनुष्य शरीर का प्रकाश भी कई रंगों से बना होता है। डॉ० जे० सी० ट्रस्टं ने अनेक रोगियों, अपराधियों तथा सामान्य व श्रेष्ठ व्यक्तियों का सूक्ष्म निरीक्षण करके बताया है कि जो मनुष्य जितनां श्रेष्ठ और अच्छे गुणों वाला होता है, उसके मानव-अणु दिव्य तेज और आभा वाले होते हैं, जबकि अपराधी और रोगी व्यक्तियों के प्रकाश-अणु क्षीण और अंधकारपूर्ण होते हैं। उन्होंने बहुत से मनुष्यों के काले धब्बों को अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर उनके रोगी या अपराधी होने की बात को बताकर लोगों को स्वीकर करा दिया था कि, सचमुच रोग और अपराधी वृत्तियाँ काले रंग के अणुओं की उपस्थिति का प्रतिफल होते हैं, मनुष्य अपने स्वभाव में चाहते हुए भी तब तक परिवर्तन नहीं कर सकता, जब तक यह दूषित प्रकाश अणु अपने अंदर विद्यमान बने रहते हैं।
यही नहीं, जन्म-जन्मांतरों तक खराब प्रकाश अणुओं की यह उपस्थिति मनुष्य से बलात् दुष्कर्म कराती रहती है, इस तरह मनुष्य पतन के खड्डे में बार-बार गिरता और अपनी आत्मा को दुःखी बनाता रहता है। जब तक यह अणु नहीं बदलते, न निष्क्रिय होते तब तक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपनी दशा नहीं सुधार पाता।
यदि अपने प्रकाश अणुओं में तीव्रता है, तो उससे दूसरों को आकस्मिक सहायता दी जा सकती है। रोग दूर किए जा सकते हैं। खराब विचार वालों को कुछ देर के लिए अच्छे संत स्वभाव में बदला जा सकता है। महर्षि नारद के संपर्क में आते ही डाकू वाल्मीकि के प्रकाश अणुओं में तीव्र झटका लगा और वह अपने आपको परिवर्तित कर डालने को विवश हुआ। भगवान् बुद्ध के इन प्रकाश अणुओं से निकलने वाली विद्युत्-विस्तार की सीमा में आते ही डाकू अगुलिमाल की विचारधाराएँ पलट गई थीं। ऋषियों के आश्रमों में गाय और शेर एक घाट में पानी पीते थे, वह इन प्रकाश-अणुओं की ही तीव्रता के कारण होता था। उस वातावरण से निकलते ही व्यक्तिगत प्रकाश अणु फिर बलवान् हो उठने से लोग पुनः दुष्कर्म करने लगते हैं, इसलिए किसी को आत्म-शक्ति या अपना प्राण देने को अपेक्षा भारतीय आचार्यों ने एक पद्धति का प्रसार किया था, जिसमें इन प्रकाश-अणुओं का विकास कोई भी व्यक्ति इच्छानुसार कर सकता था। देव उपासना उसी का नाम है।
उपासना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें हम अपने भीतर के काले, मटमैले और पापाचरण को प्रोत्साहन देने वाले प्रकाश-अणुओं को दिव्य-तेजस्वी, सदाचरण और शांति एवं प्रसन्नता की वृत्ति प्रदान करने वाले मानव-अणुओं में परिवर्तित करते हैं। विकास की इस प्रक्रिया में किसी नैसर्गिक तत्त्व, पिंड या ग्रह-नक्षत्र की साझेदारी होती है-उदाहरण के लिए जब हम गायत्री की उपासना करते हैं, तो हमारे भीतर के दूषित प्रकाश-अणुओं को हटाने और उसके स्थान पर दिव्य प्रकाश अणु भर देने का माध्यम 'गायत्री' का देवता अर्थात् सूर्य होता है।
वर्ण रचना और प्रकाश की दृष्टि से यह मानव-अणु भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं। मनुष्य का जो कुछ भी स्वभाव आज दिखाई देता है, वह इन्हीं अणुओं की उपस्थिति के कारण होता है, यदि इस विज्ञान को समझा जा सके, तो न केवल अपना जीवन शुद्ध, सात्त्विक, सफल, रोगमुक्त बनाया जा सकता है, वरन् औरों को भी प्रभावित और इन लाभों से लाभान्वित किया जा सकता है। परलोक और सद्गति के आधार भी यह प्रकाश अणु या मानव अणु ही है।
भारतीयों योगियों ने ब्रह्मरंध्र की स्थिति और जिन षटचक्रों की खोज की है, सहस्रार कमल उनसे बिल्कुल अलग सर्वप्रभुता संपन्न है। यह स्थान कनपटियों से दो इंच अंदर भृकुटि से लगभग ढाई या तीन इंच अंदर छोटे से पोले में प्रकाश पुंज के रूप में है। तत्त्वदर्शियों के अनुसार यह स्थान उलटे छाते या कटोरे के समान १७ प्रधान प्रकाश तत्त्वों से बना होता है, देखने में मर्करी लाइट के समान दिखाई देता है। छांदोग्य उपनिषद् ने सहस्रार दर्शन की सिद्धि पाँच शब्दों में इस तरह प्रतिपादित की—'तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारी भवति, अर्थात् सहस्रार प्राप्त कर लेने वाला योगी संपूर्ण भौतिक विज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। यही वह शक्ति केंद्र है। जहाँ से मस्तिष्क शरीर का नियंत्रण करता है और विश्व में जो कुछ भी मानवकृत विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है, उसका संपादन करता है।
आत्मा या चेतना जिन अणुओं से अपने को अभिव्यक्त करती है, वह यह प्रकाश अणु ही है, जबकि आत्मा स्वयं उससे भिन्न है। प्रकाश अणुओं को प्राण विधायक शक्ति, अग्नि, तेजस् कहना चाहिए। वह जितने शुद्ध, दिव्य और तेजस्वी होंगे, व्यक्ति उतना है महान्, तेजस्वी, यशस्वी, वीर, साहसी और कलाकार होगा। महापुरुषों के तेजोवलय उसी बात के प्रतीक हैं, जबकि निकृष्ट कोटि के व्यक्तियों में यह अणु अत्यंत शिथिल, मंद और काले होते हैं। हमें चाहिए कि, हम इन दूषित प्रकाश अणुओं को दिव्य अणुओं में बदले और अपने को भी महापुरुषों की श्रेणी में ले जाने का यत्न करें।
गायत्री उपासना में सविता देवता का ध्यान करने की प्रक्रिया इसीलिए की जाती है, कि अंतर के कण-कण में सर्वव्याप्त प्रकाश आभा को अधिक दीप्तिमान् बनने का अवसर मिले। अपने ब्रह्मरंध्र में अवस्थित सहस्रांशु आदित्य सहस्रदल कमल को खिलाए और उसकी प्रत्येक पंखुरी में सन्निहित दिव्य कलाओं के उदय का लाभ साधक को मिले।
ब्रह्म विद्या का उद्गाता 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की प्रार्थना में इस दिव्य प्रकाश की याचना करता है। इसी की प्रत्येक जाग्रत् आत्मा को आवश्यकता अनुभव होती है। अस्तु गायत्री उपासक अपने जप प्रयोजन में इसी ज्योति को अंत:भूमिका में अवतरण करने के लिये सविता का ध्यान करता है।
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- भविष्यवाणियों से सार्थक दिशा बोध
- भविष्यवक्ताओं की परंपरा
- अतींद्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि व आधार
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- पूर्वाभास-संयोग नहीं तथ्य
- पूर्वाभास से मार्गदर्शन
- भूत और भविष्य - ज्ञात और ज्ञेय
- सपनों के झरोखे से
- पूर्वाभास और अतींद्रिय दर्शन के वैज्ञानिक आधार
- समय फैलता व सिकुड़ता है
- समय और चेतना से परे