आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की क्या आवश्यकता है
गायत्री सार्वभौम एवं सर्वजनीन है। इसे किसी देश, धर्म, जाति, सम्प्रदाय तक सीमित नहीं किया जा सकता है। भारत में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम भारतीय संस्कृति पड़ा है, पर उसकी कोई प्रक्रिया इस परिधि में रहने वाले लोगों तक सीमित नहीं रखी जा सकती। गायत्री भारतीय संस्कृति की आत्मा कही जाती है, पर इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इसी देश के निवासी या इसी धर्म के अनुयायी इसका उपयोग कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति वस्तुत: दैवी संस्कृति है, उसे मानवी संस्कृति कह सकते हैं। उसे देश, धर्म, जाति, भाषा सम्प्रदाय आदि के नाम पर अपने-पराये की विभाजन रेखा नहीं बनानी चाहिए।
ऋतम्भरा को इष्ट माना जाये, यही मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है। आत्मज्ञान-ब्रह्मज्ञान इसी को कहा गया है। विवेकशीलता-दूरदर्शिता यही है। न्याय और औचित्य इसी के प्रतिफल हैं। परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करने वाले जानते हैं कि वह मात्र मन:स्थिति की ही परिणति होती है। बुरी परिस्थितियों के लिए बुरी मन:स्थिति ही उत्तरदायी होती है। भीतर का परिवर्तन बाहरी परिकर में आश्चर्यजनक हेर-फेर उत्पन्न करता है। दरिद्रता, विपन्नता, विग्रह, विपत्ति एवं विभीषिकाएँ आन्तरिक निकृष्टता की ही प्रतिक्रियाएँ हैं। उत्कृष्ट चिन्तन के कारण बन पड़ने वाले आदर्श क्रिया-कलाप ही मनुष्य को आत्मसंतोष, जन-सम्मान, विपुल सहयोग एवं दैवी अनुग्रह की अनेक सम्पदाएँ एवं विभूतियाँ प्रस्तुत करते हैं। प्राचीन काल की सतयुगी परिस्थिति और देवोपम मन:स्थिति की सुखद गाथा गाने वाले जानते हैं कि अतीत की गरिमा का एक मात्र आधार, उस समय अपनाया गया उत्कृष्ट दृष्टिकोण एवं आदर्श चरित्र ही था। इस समस्त वैभव को ऋतम्भरा की देन कह सकते हैं। यह प्रज्ञा की देवी का अजस्र अनुदान ही था, जिसे पाकर भारत भूमि और समस्त विश्व-वसुधा को चिरकाल तक कृत-कृत्य रहने का अवसर मिला।
प्रज्ञा को इष्ट मानकर चलने वाला उन सभी लाभों को प्राप्त करता है, जो गायत्री उपासना के माहात्म्य वर्णन में आकर्षक एवम् आलंकारिक ढंग से बताये गये हैं। “नहि ज्ञानेन सदृश पवित्रमिह विद्यते' आत्मा वाऽऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो, जैसे उद्वबोधन वाक्यों में जिस आत्मज्ञान की गरिमा बतायी गयी है, जिसे प्राप्त करके भगवान बुद्ध की तरह अनेकानेक श्रेय-साधक धन्य बनते रहे हैं, वही महाप्रज्ञा आदिशक्ति गायत्री है। उसी का हमें वरण करना चाहिए।
गायत्री का वाहन हंस है- राजहंस-परमहंस, विवेकवान्-प्रज्ञावान्। राजहंस नीर-क्षीर-विवेक से युक्त, कृमि-कीटकों का भक्षण करने से विरत, मुक्ताओं पर निर्भर रहता है। यह चित्रण बताता है कि श्रेय-साधक की मनोभूमि कैसी होनी चाहिए। गायत्री जिस पर कृपा करे, वह प्रज्ञावान् होता है अथवा प्रज्ञावान् को गायत्री का अनुग्रह प्राप्त हो जाता है। दोनों प्रतिपादनों का तात्पर्य एक ही है। गायत्री का इष्टरूप में वरण सर्वोत्तम चयन है। इतना निश्चित निर्धारण करने पर आत्मिक प्रगति का उपक्रम सुनिश्चित रूप से द्रुतगति से अग्रगामी बनने लगता है, तब साधना, से सिद्धि' के सिद्धांत में कहीं कोई शक की गुंजाइश नहीं रह जाती।
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- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान