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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


अशुभ कर्मों का सम्पादन और देह का जड़ अभिमान ही मनुष्य को छोटा बनाये हुये है। शुभ-अशुभ कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख का भोक्ता न होने पर भी आत्मा मोह वश होकर दुःख भोगती है। मैं देह हूँ "मुझे सारे अधिकार मिलने ही चाहिये" यह मान लेने से जीव स्वयं कर्ता-भोक्ता बन जाता है और इसी कारण वह "जीव" कहलाता है। जब तक वह इतनी-सी सीमा में रहता है - तब तक उसकी शक्ति भी उतनी ही तुच्छ और संकुचित बनी रहती है। जब वह इस भ्रम रूप देहाध्यास का परित्याग कर देता है तो वह शिव-स्वरूप, ईश्वर-स्वरूप हो जाता है। उसकी शक्तियाँ विस्तीर्ण हो जाती हैं और वह अपने आपको अनन्त शक्तिशाली, अनन्त आनन्द में लीन हुआ अनुभव करने लगता है।

अपनी तुच्छ सत्ता को परमात्मा की शरणागति में ले जाने से मनुष्य अनेकों कष्ट-कठिनाइयों से बच जाता है। गृहपति की अवज्ञा करके जिस तरह घर का कोई भी सदस्य सुखी नहीं रह सकता उसी प्रकार परमात्मा का विरोधी भी कभी सखी या सन्तुष्ट नहीं रह सकता। परमात्मा की अवमानना का अर्थ है उसके सार्वभौमिक नियमों का पालन न करना। अपने स्वार्थ, अपनी तृष्णा की पूर्ति के लिये कोई भी अनुचित कार्य परमात्मा को प्रिय नहीं। इस तरह की क्षुद्र बुद्धि का व्यक्ति ही उसके कोप का भाजन बनता है पर जो विश्व-कल्याण की कामना में ही अपना कल्याण मानते और तदनुसार आचरण करते हैं। ईश्वर के अनुदान उन्हें उसी तरह प्राप्त होते हैं जैसे कोई पिता अपने सदाचारी, आज्ञा पालक और सेवा भावी पुत्र को ही अपनी सुख-सुविधाओं का अधिकांश भाग सौंपता है।

पापों का नाश हुये बिना, इन्द्रियों का दमन किये बिना, अन्तःकरण की शुद्धि नहीं होती। संसार में रहते हुये मनुष्य कर्मों से भी छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता। अत: निष्काम कर्मयोग परमात्मा की प्राप्ति और सांसारिक सुखोपभोग का सबसे सुन्दर और समन्वययुक्त धर्म है। निष्काम भावनाओं में पाप नहीं होता वरन् दूसरों के हित की, कल्याण की और सबको ऊँचे उठाने की विशालता होती है जिससे अन्तःकरण की पवित्रता बढ़ती है और सुख मिलता है अतएव प्रत्येक मनुष्य को संसार समर का योद्धा बनकर ही जीवनयापन करना चाहिये। वह साहस वह गम्भीरता और वह कार्य करने की भावना मनुष्य ब्रह्म ज्ञान और ब्रह्म सान्निध्यता में ही प्राप्त करता है।

ईश्वर का ज्ञान हो जाने पर सांसारिक संयोग वियोग से उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख मनुष्य को बन्धन में नहीं बाँध पाते। यह कल्पित संसार जीव की अपनी कल्पना के सिवा और कुछ नहीं है। इससे घट-बढ़ हुआ ही करता है और इसमें जीव की ममता होने के कारण इसमें बढ़ती होने पर वह प्रसन्न होता है और कमी होने पर दुःखी होता है। उदाहरण के लिए-जब परिवार में कोई बच्चा पैदा होता है तो लोग खुशी मनाते हैं। पर इससे परमात्मा की सृष्टि में कोई कमी नहीं आई। जीव तो अमर है जैसे पहले था, वैसे ही अब भी है, केवल पंच भौतिक तत्वों का एक शरीर के रूप में संयोग हुआ। इसी प्रकार कोई मर जाता है तो दुःख मानते हैं पर पहली स्थिति की तरह इस बार भी परमात्मा की सृष्टि में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। पंच भौतिक शरीर का वियोग मात्र हुआ जीव तो अपने मूल-रूप में अब भी विद्यमान है। इस गूढ रहस्य को न जानने के कारण ही मनुष्य सांसारिक बन्धनों में बंधकर तरह-तरह के दुःख भोगता है। अतः कल्याणकामी पुरुष के लिये बादल के समान क्षण-क्षण रङ्ग बदलने वाले विनाशशील व्यावहारिक जगत में मोह का सम्बन्ध न बाँधकर अविनाशी और अचल परम सत्ता में चित्त को जोड़ देने और लोककल्याण के लिये निष्काम कर्म करने में ही इस जीवन की सार्थकता है।

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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