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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

ईश्वर प्राप्ति के लिये जीवन-साधना की आवश्यकता


ईश्वर की पूजा प्रार्थना अध्यात्म की आरम्भिक प्रक्रिया है। इसका प्रयोजन यह है कि हम जिस ईश्वर को एक प्रकार से सर्वथा भुला चुके हैं उसे स्मरण करें और स्मरण के साथ-साथ यह देखें कि मनुष्य जीवन के साथ उसका क्या सम्बन्ध है? इस सम्बन्ध को ठीक तरह समझ लेने और उसका निर्वाह कर सकने की ललक जागृत करना यह अध्यात्म का मूलभूत प्रयोजन है। इसी की पूर्ति के लिये उपासना को-कीर्तन, भजन, जप, तप, स्तवन आदि कीआवश्यकता समझी गई है।
यों ईश्वर के बारे में हमने बहुत कुछ सुना पढ़ा है। मन्दिरों में उसके दर्शन भी किये हैं और कृपा प्राप्त करने के लिये पूजा पाठ भी। पर सच तो यह है अभी तक उसे ठीक तरह समझा नहीं जा सका। यदि इतनी भर सफलता मिल जाती तो उपासना भी ठीक तरह बन पड़ती और उसका लाभ प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता।

लोग इतना भर जानते हैं कि ईश्वर किसी अन्य लोक में रहने वाले ऐसे देवता का नाम है जो पूजा अर्चा का भूखा और स्तुति प्रार्थना का प्यासा बैठा रहता है। जो कोई उसे यह चीजें दे दे उसे निहाल कर देता है उसे पापों का दण्ड नहीं देता और जो पूजा प्रार्थना आत्मा और परमात्मा नहीं करता उससे रुष्ट रहता है और कष्ट पहुँचाता है। यदि यह मान्यता सही हो तो नैतिकता और न्याय की कसौटी पर ऐसा ईश्वर सर्वथा ओछा और खोटा सिद्ध होगा। तब उसकी व्यवस्था में किसी सिद्धान्त, आदर्श, नियम या व्यवस्था की कैसे आशा की जायेगी? और उसके प्रति किसी विवेकवान व्यक्ति के मन में श्रद्धा क्यों कर उत्पन्न होगी?

सचाई प्रचलित मान्यता से सर्वथा भिन्न है। ईश्वर सर्वव्यापी दिव्य चेतना को कहते हैं जो श्रेष्ठता के रूप में मानव अन्त:करण को विकसित करती है। ईश्वर एक प्रेरणा है जो हमें उत्कृष्ट जीवन यापन और आदर्श क्रिया कलाप अपनाने की ओर अग्रसर करती है। ईश्वर एक प्रकाश है जो हमें न्यायप्रिय विवेकशील और कर्त्तव्यनिष्ठ बनने के लिये मार्गदर्शन करता है। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के रूप में मनुष्य के अन्तःकरण में-सबसे निकट यह ईश्वर विद्यमान रहता है। पर दुर्भाग्यवश हम उससे विमुख होकर आसुरी, ईश्वर विरोधी और नास्तिकवादी रीति-नीति अपनाते हैं। हमारी बुद्धि में स्वार्थ भरी सङ्कीर्णता समाई रहती है। वासना और तुष्णा के लिए अन्तःकरण लालायित रहता है। यह प्रक्रिया विशुद्ध रूप से ईश्वर विरोधी है। नियति के निर्धारित चक्र का व्यतिक्रम करके कोई चैन से नहीं बैठ सकता। नास्तिक को न शान्ति मिलती है न सन्तोष। वह सदा पतित और व्यथित ही दिखाई पड़ता है।

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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