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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


साधना निश्चित रूप से याचना नहीं है। वह विशुद्ध रूप से आत्म-परिष्कार, जीवन शोधन और पवित्रता के विकास की सुनियोजित प्रक्रिया है। तपश्चर्या की आग में हम अपने कलुषकषायों को जलाते हैं। कर्मफल से छुटकारा पाने की वही चेष्टा है। कर्म फल अपने हाथ में नहीं। तीर छोड़ने से पहले अपने हाथ में था, छट गया तो अपना कार्य करेगा। कर्मफल की व्यवस्था सृष्टि का कठोर और अपरिवर्तनीय नियम है। उसे यदि ईश्वर बदलने लगे तो फिर उसे अपनी सारी क्रम व्यवस्था ही बदलनी पड़ेगी। सच्चा न्यायाधीश अपने बेटे को भी अपराध का दण्ड देकर न्याय की रक्षा करता है। ईश्वर के न्यायालय में भक्त-अभक्त का अन्तर नहीं। भक्ति के दूसरे परिणाम हो सकते हैं पर उसका प्रयोजन यह नहीं हो सकता कि उस न्यायशील परमेश्वर को अन्याय या पक्षपात करने के लिए विवश किया जाय।

भक्ति हमें भविष्य में दुष्कर्म न करने की प्रेरणा देती है। अपने स्वभाव में धंसे हुए अविवेक और अनाचार उन्मूलन में सहायता करती है। निष्पाप और निर्मल बन कर हम प्रारब्ध कर्मो को भी धैर्य और शान्ति पूर्वक साहस और सन्तोष के साथ सहन कर सकते हैं और इस प्रकार प्रारब्ध भोग की आधी व्यथा हलकी कर सकते हैं। दुष्कर्मों और कुविचारों को तिलाञ्जलि देकर अपना भविष्य तो उज्वल कर ही सकते हैं। साधना का लाभ भी कम महत्वपूर्ण नहीं।

संचित कर्मों के छुटकारे का एक ही सनातन मार्ग और विधान है प्रायश्चित। पिछली भूलों पर खेद प्रकट कर देने या क्षमा माँगने की औपचारिकता पूरी करने से काम नहीं चलता। समाज को जो क्षति पहुँचाई है उतना अनुदान देकर उस गड्ढे को पाटना पड़ेगा। मन को कुकर्म के द्वारा जितना कलुषित किया है उतना ही सत्कर्म के उल्लास से उसका सन्तुलन बनाना पड़ेगा। अनाचार की जिन अवांछनीय लहरों से वातावरण को क्षुब्ध किया था उसका समाधान पुण्य और परमार्थ की प्रक्रिया अपनाकर करना होगा। इतना साहस भक्त में उदय होता है और वह अपनी सदाशयता सिद्ध करने के लिए न्याय के कटघरे में खड़े होने से पूर्व स्वयं ही उपस्थित होकर अपनी भूल स्वीकारने और उसकी क्षति पूर्ति करने की बहादुरी दिखाता है।

साधना की प्रतिक्रिया साधक को अपने पापों का प्रायश्चित करने का शौर्य प्रदान करती है और भविष्य में निर्मल जीवन जीने का साहस। यह सत्परिणाम है जो साधना आदि सच्ची हो तो उसके फलस्वरूप साधक को तुरन्त प्राप्त होता है।

आत्मज्ञान के अभाव में ही ईश्वर और जीव का वियोग है। अज्ञान के अन्धकार का पर्दा जितना चौड़ा है उतनी ही दूर परमेश्वर है। भगवान् का दर्शन और अनुग्रह प्राप्त करने के लिए सिर्फ छोटी सी मंजिल पार करनी पड़ती है और वह है आत्म-बोध। जिस घड़ी हम इन्द्रियों की गुलामी-वासना से, मन की दासता-तृष्णा से इनकार कर देते हैं और अपने को आत्मा मानकर आत्मकल्याण के पथ पर कदम बढ़ाते हैं उसी क्षण ईश्वर की समीपता स्पष्ट हो जाती है और हृदय की हर धड़कन में उसके दर्शन होने लगते हैं।

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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