आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
मैं यदि शरीर हैं तो उसका अन्त क्या है? लक्ष्य क्या है? परिणाम क्या है?-मृत्यु-मृत्यु-मृत्यु। कल नहीं तो परसों वह दिन तेजी से आँधी तूफान की तरह उड़ता उमड़ता चला आ रहा है, जिसमें आज की मेरी यह सुन्दर सी काया-जिसे मैंने अत्यधिक प्यार किया-प्यार क्या जिसमें पूरी तरह समर्पित हो गया-घुल गया, अब वह मुझसे विलग हो जायेगी। विलग ही नहीं अस्तित्व भी गँवा बैठेगी। काया में घुला हुआ 'मैं'-मौत के एक ही थपेड़े में कितना कुरूप-कितना विकृत-कितना निरर्थक- कितना घृणित हो जाऊँगा कि उसे प्रिय परिजन तक-कुछ समय और उसी घर में रहने देने के लिए सहमत न होंगे जिसे मैंने ही कितने ही अरमानों के साथ-कितने कष्ट सहकर बनाया था। क्या यही मेरे परिजन हैं? जिन्हें लाड़ चाव से पाला था। अब ये मेरी इस काया को-घर में से हटा देने के लिए-उसका अस्तित्व सदा के लिए मिटा देने के लिए क्यों आतुर हैं? कल वाला ही तो मैं हूँ।
मौत के जरा से आघात से मेरा स्वरूप यह कैसा हो गया। अब तो मेरी मृत काया-हिलती डुलती भी नहीं- बोलती, सोचती भी नहीं? अब तो उसके कुछ अरमान भी नहीं हैं। हाय, यह कैसी मलीन, दयनीय, घिनौनी बनी जमीन पर लुढ़क रही है। अब तो यह पलंग बिस्तर पर सोने तक का अधिकार खो बैठी। कुशाओं वान से ढकी-गोबर से लिपी गीली भूमि पर यह पड़ी है। अब कोई चिकित्सक भी इसका इलाज करने को तैयार नहीं। कोई, बेटा, पोता गोदी में नहीं आता। पत्नी छाती तो कूटती है, पर साथ सोने से डरती है। मेरा पैसा-मेरा वैभव-मेरा सम्मान हाय रे सब छिन गया-हाय रे मैं बुरी तरह लुट गया। मेरे कहलाने वाले लोग ही-मेरा सब कुछ छीनकर मुझे इस दुर्गति के साथ घर से निकाल रहे हैं। क्या यही अपनी दुर्दशा कराने के लिए मैं जन्मा? यही है क्या मेरा अन्त–यही था क्या मेरा लक्ष्य, यही है क्या मेरी उपलब्धि। जिसके लिए कितने अरमान सँजोये थे, जिसके लिए कितने पुरुषार्थ किये थे-क्या उसका निष्कर्ष यही है? यही हूँ मैं-जो मुर्दा बना पड़ा हूँ-और लकड़ियों की चिता में जलकर अगले ही क्षण अपना अस्तित्व सदा के लिए खोने जा रहा हूँ।
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