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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


-मैं काया हूँ। यह जन्म के दिन से लेकर-मौत के दिन तक मैं मानता रहा। यह मान्यता इतनी प्रगाढ़ थी कि कथा पुराणों की चर्चा में आत्मा काया की पृथकता की चर्चा आये दिन सुनते रहने पर भी गले से नीचे नहीं उतरती थी। शरीर ही तो मैं हूँ-उससे अलग मेरी सत्ता भला किस प्रकार हो सकती है? शरीर के सुख-दु:ख के अतिरिक्त मेरा सुखदुःख अलग क्योंकर होगा? शरीर तो प्रत्यक्ष है-आत्मा अलग है, उसके स्वार्थ, सुख-दुःख अलग हैं यह बातें कहने-सुनने भर की ही हो सकती है। सो रामायण, गीता वाले प्रवचनों की हाँ में हाँ तो मिलाता रहा पर उसे वास्तविकता के रूप में कभी स्वीकार न किया।

पर आज देखता हूँ कि वह सचाई थी जो समझ में नहीं आई और वह झुठाई थी जो सिर पर हर घड़ी सवार रही। शरीर ही मैं हूँ। यही मान्यता शराब की खुमारी की तरह नस-नस में भरी रही। बोतल पर बोतल छानता रहा तो वह खुमारी उतरती भी कैसे? पर आज आकाश में उड़ता हुआ वायुभूत एकाकी-'मैं' सोचता हूँ। झूठा जीवन जिया गया, झूठे बनकर जिया। सचाई आँखों से ओझल ही बनी रही। मैं एकाकी हूँ, शरीर से भिन्न हूँ। आत्मा हूँ। यह सुनता जरूर रहा पर मानने का अवसर ही नहीं आया। यदि उस तथ्य को जाना ही नहीं माना भी होता तो वह अलभ्य अवसर जो हाथ से चला गया, इस बुरी तरह न आता। जीवन जिस मूर्खतापूर्ण रीति-नीति से जिया गया वैसा न जिया जाता।

शरीर मेरा है-मेरे लिए है, मैं शरीर नहीं हूँ। यह छोटी सी सचाई यदि समय रहते समझ में आ गई होती तो मनुष्य जीवन जैसे सुरदुर्लभ सौभाग्य का लाभ लिया गया होता, पर अब क्या हो सकता है। अब तो पश्चाताप ही शेष है। भूल भरी मूर्खता के लिए न जाने कितने लम्बे समय तक रुदन करना पड़ेगा?




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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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