आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
आत्म बोध-आन्तरिक कायाकल्प-प्रत्यक्ष स्पर्श
'मैं' कौन हूँ, क्यों हूँ, किसका हूँ? यह प्रश्न ऐसे हैं जिनको उपेक्षित-बिना हल किया हुआ, छोड़ दिया जाय तो वह लापरवाही बहुत मँहगी पड़ती है। जीवन का सारा आनन्द ही चला जाता है। आनन्द ही नहीं चला जाता, वरन् इस उलझी हुई गुत्थी में उलझ कर मनुष्य ऐसी जिन्दगी जीने के लिए विवश होता है जिसे नीरस और भारभूत ही कहा जा सके।
ऊपर मन:स्थिति का चित्रण किया गया है जिसमें अपने आपको शरीर मान लेने से सांसारिक सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान किस तरह उद्विग्न उद्वेलित करते हैं और हर परिस्थिति, आशङ्का एवं असंतोष से भरी रहती है। जो कुछ उपार्जन किया था उसका हर्ष रत्ती भर होता है और उसके साथ जुड़ी हुई विषमताओं का चिन्तन पहाड़ भर। जिसमें हर्ष स्वल्प और विषाद अपरिमित हो ऐसी जिन्दगी जीकर कौन अपने आपको सौभाग्यशाली मानेगा?
किन्तु अपने संबंध में सही ढङ्ग से सोचने की विधि हाथ लग जाय तो देखते-देखते जादू की तरह असन्तोष और उद्वेग की स्थिति संतोष और उल्लास से भर जाती है। आगे और पीछे जो अन्धकार दीख रहा है उसे प्रकाश में परिणित होते देर नहीं लगती। इसी स्थिति को आत्मज्ञान कहते हैं। इसे एक प्रकार का आन्तरिक काया-कल्प ही कहना चाहिए। सुना है किन्हीं दिव्य विधियों से वृद्ध और जीर्ण शरीर को नवयौवन की स्थिति में बदला जा सकना सम्भव है। उस विधि को काया-कल्प कहते हैं। शारीरिक काया कल्प के उदाहरण और प्रयोग इन दिनों प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ते, पर आत्मिक काया-कल्प हर किसी के लिए सम्भव है। आज हीअभी ही वह स्थिति प्राप्त की जा सकती है जिसके आधार पर गरीबी को अमीरी में-दुर्भाग्य को सौभाग्य में-शत्रुओं को मित्रों में, आशङ्काओं को-उल्लास में परिवर्तित किया जा सके। इस अन्धकार को प्रकाश में परिणित करने वाली प्रक्रिया को आत्म-बोध कहते हैं। यह आत्म-बोध कोई दैवी वरदान, जादू या चमत्कार नहीं है, सिर्फ उस मान्यता और श्रद्धा का नाम है जो अपने स्वरूप को सही रूप में समझने का अवसर देती है। इतनी सामर्थ्य प्रदान करती है कि पिछले ढर्रे को बदल कर नये सिरे से वस्तुस्थिति के अनुरूप सोचने और करने की पद्धति को अपनाया-कार्यान्वित किया जा सके।
आत्म-बोध-आत्मोत्थान, आत्म साक्षात्कार, जीवन का सबसे बड़ा लाभ है। इससे बड़ी उपलब्धि इस मनुष्य के लिए और कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। मैं क्या हूँ? कौन हूँ? किस लिये हूँ, इस तथ्य को समझ लेने के बाद यह भी अनुभूति होने लगती है कि उपकरण, औजार एवं पदार्थों का उपयोग, उपभोग-संबंध, स्नेह की सीमा कितनी रहनी चाहिए, इस सीमा का स्वरूप और निर्धारण जब भी, जो भी कर लेगा वह दिव्य-जीवन जियेगा सुख-शान्ति से ओत-प्रोत रहेगा और सर्वत्र धरती के देवताओं की तरह महामानवों की तरह हर किसी के अन्तरङ्ग पर श्रद्धा भरा शासन करेगा।
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