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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


मैं क्या हूँ? इस प्रश्न का उत्तर-शरीर हूँ, के रूप में ही हमारी अन्त:मान्यता देती है, सो परिवर्तनशील प्रकृति के साथ जुड़ी हुई परिवर्तनीय प्रतिक्रियाएं देह के साथ भी जुड़ी ही रहेंगी। सम्बन्धित पदार्थ भी बदलेंगे ही और जिनके साथ स्नेह सम्बन्ध है उनमें भी भौतिक कारणों से अन्तर आवेगा और दिन की तरह प्रिय-अप्रिय द्वन्द्वों का फेर चलता ही रहेगा और उस भूल में क्षण-क्षण में प्रियअप्रिय अनुभव होते ही रहेंगे। दृष्टिकोण में निषेधात्मक तत्व अधिक होने से एक और भूल होती रहेगी कि शरीर को-संसार द्वारा जो सुख-सुविधायें मिल रही हैं उन्हें देखना समझना और मोद मनाना सम्भव न हो सकेगा, इसके विपरीत जो अभाव अभियोग हैं वे ही आँखों के आगे खड़े रहेंगे। इस स्थिति में किसी सुसम्पन्न व्यक्ति के लिए भी यह सम्भव नहीं कि वह सुख-शान्ति का अनुभव कर सके।

आमतौर से हर व्यक्ति यही प्रयास करता है कि-दूसरे लोग उसे बड़ा, सुखी या सम्पन्न समझें। इसी का ढाँचा खड़ा करने में उसकी सारी शक्ति लगी रहती है। सारे प्रयास इसी परिधि के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं। वस्त्र-आभूषण, शृंगार, ठाठ-बाट, डिग्री, पद आदि के बड़प्पन प्रदर्शित करने वाले आवरण बड़ी कठिनाई से जमा किये जाते हैं और उसी संचय में सारा समय, श्रम, एवं मनोयोग खप जाता है। दूसरे लोग अपनी ही समस्याओं में उलझे होते हैं, उन्हें किसी की अमीरी, गरीबी का मूल्यांकन करने में क्या रुचि हो सकती है, पर हर व्यक्ति समझता यही है कि सब का सारा ध्यान मेरे ही ऊपर केन्द्रित है और यह मनोवैज्ञानिक भूल मनुष्य को उस निरर्थक क्रियाकलाप और चिन्तन में लगाये रहती है। जिसे तात्विक दृष्टि से पूर्णतया निरर्थक कहा जा सके। किसी ने-कुछ देर के लिए हमें साधन सम्पन्न-अमीर-बड़ा आदमी जान या मान भी लिया तो इससे क्या तो अपना प्रयोजन सधा और क्या उसे लाभ हुआ?

आत्म-बोध न होने से मनुष्य की महत्वाकांक्षायें, चेष्टाएँ, योजनाएँ, गति-विधियाँ एक प्रकार से निरर्थक कामों में लगी रहती हैं और बहुमूल्य मानव-जीवन ऐसे ही उन विडम्बनाओं में लग जाता है। जो सुख-साधन भौतिक-जीवन में उपलब्ध थे, उनको भी दृष्टिकोण के कारण समझा और सराहा नहीं जाता। स्त्री, सन्तान, शरीर, शिक्षा सहायक, साधन जो कुछ भी मिले हुए हैं उनके मूल्य, महत्व को भी यदि समझने की चेष्टा की जाय-इनसे मिलने वाली सहायता सुविधा का लेखा-जोखा लिया जाय, तो भी हर व्यक्ति को अपनी स्थिति बहुत हद तक हर्ष, सन्तोष से भरी हुई प्रतीत हो सकती है; पर इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाय, जिसके अनुसार केवल अभाव, और छिद्र ही दिखाई पड़ते हैं। अपनी कुरूपता हर किसी को कुरूप प्रस्तुत करती है। आन्तरिक दुर्बलता, आशङ्का अविश्वास, अवरोध, द्वेष घृणा के रूप में फुफकारती और वातावरण को विषाक्त करती रहती है। सो इन्हीं विडम्बनाओं में उलझा हुआ विभीषिकाओं से संत्रस्त, आशंकाओं से उद्विग्न-मनुष्य अन्तर्दाह की आग में हर क्षण जलता हुआ नारकीय जीवन जीता है। यह सब आत्म-बोध न होने का ही परिणाम है।

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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