आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
मैं क्या हूँ? इसका उत्तर अपने अब तक के चले आ रहे ढर्रे वाले अभ्यास के अनुरूप नहीं वरन् तत्वचिन्तन के आधार पर देना चाहिए। दूसरे लोग क्या कहते हैं-क्या सोचते हैं और क्या करते हैं इससे भी हमें प्रभावित नहीं होना चाहिए। निस्संदेह वातावरण अन्धकार भरा है। प्राचीनकाल में सतयुगी व्यक्तित्व, कर्तृत्व और वातावरण-शुद्ध चिन्तन में सहायता करता था, उससे प्रभावित हर नागरिक को सही दिशा मिलती थी। आज सब कछ उल्टा है, यदि आज वस्तुस्थिति समझने के लिये लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं उसे आधार बनाया जाय तो निश्चित रूप से हमें अवांछनीय निष्कर्ष पर पहँचना पडेगा और अनचित रीति-नीति अपनाने के लिए विवश होना पड़ेगा।
आत्म-बोध की पहली सीढ़ी यह है कि लोक-चिन्तन की अवांछनीयता को समझा जाय और अपनी अब तक की ढर्रे पर लुढ़कती हुई मान्यताओं के औचित्य को अस्वीकार किया जाय। काया-कल्प में पुराना शरीर छोड़ना पड़ता है और नया ग्रहण करना पड़ता है। विवाह होने पर वधू पितृ-गृह छोड़ती है और साथ ही अब तक का स्वभाव अभ्यास भी। उस नवविवाहिता को पति के घर में जाकर नये स्वजनों से घनिष्ठता बढ़ानी पड़ती है और ससुराल की विधि-व्यवस्था में अपने को ढालना होता है। ठीक ऐसा ही परिवर्तन आन्तरिक काया-कल्प के अवसर पर करना पड़ता है। आत्म-बोध एक प्रकार से अन्धकार परित्याग कर प्रकाश को वरण करना है।
इसके लिए क्रान्तिकारी कदम उठा सकने वाले साहस की जरूरत पड़ती है। ढर्रे में राई-रत्ती अन्तर करने से काम नहीं चलता। यह पढ़ने और सुनने की नहीं सर्वतोमुखी परिवर्तन की प्रक्रिया है। एक लोक को छोड़कर दूसरे लोक में जाने-एक शरीर त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करने जैसी इस प्रक्रिया को जो कोई सम्पन्न कर सके उसे ही आत्मज्ञानी कहा जायेगा। आत्म-बोध और आत्म-साक्षात्कार इसी स्थिति का नाम है। ब्रह्म सम्बन्ध, आत्म-दर्शन, दीक्षा लाभ चक्षु उन्मीलन, दिव्य जागरण इसी को कहते हैं। यह छलांग जो लगा सके उसे इस दुस्साहस का परिणाम दूसरे ही क्षण परिलक्षित होगा। अपने को तत्काल नरक में से निकाल कर स्वर्ग में अवस्थित अनुभव करेगा। मैं क्या हूँ? इस प्रश्न का समाधान, इतना बड़ा लाभ है कि उस पर समस्त संसार की समग्र सम्पदाओं को निछावर किया जा सकता है।
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