आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
परमात्मा आनन्द स्वरूप है। उसकी प्रत्येक क्रिया आनन्द पूर्ण है, आनन्द के लिए है। आनन्द उद्भव एवं विस्तार करने के लिए है। उसने क्रीड़ा करने के लिए-खेल खेलने के लिएविनोद और मनोरञ्जन के लिए-यह सारा संसार रचा है। लीलाधर की लीलाएँ उसी के स्वयं के लिए ही नहीं प्रत्येक चराचर के लिए आह्लाद और उल्लास प्रदान करने वाली हैं। प्राणी भी आनन्द की ही खोज में निरन्तर संलग्न रहता है। उसे अपनी समझ के अनुसार जहाँ कहीं भी आनन्द दीखता है वहीं जा पहुँचता है, जो वस्तुएँ उसे आनन्ददायक लगती हैं उन्हें ही प्राप्त करने की चेष्टा करता है। सच्चा आनन्द और झूठा आनन्द परखने में भूल हो सकती है पर इतना निश्चित है कि हर प्राणी आनन्द चाहता है और अपनी परिष्कृत अथवा अपरिष्कृत बुद्धि के अनुसार जहाँ भी आनन्द दिखाई पड़ता है वहीं रहना चाहता है उसी को प्राप्त करना चाहता है। इसी चाहना, आकाँक्षा के लिए उसका प्रायः सारा ही जीवन उत्सर्ग होता है।
सत्, चित्, आनन्द का सम्मिश्रित रूप ही ब्रह्म है। चूंकि हम सब इन तीनों ही को चाहते हैं और इन्हें ही अधिक मात्रा में प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, इसलिए यही कहना होगा कि हमारी प्रवृत्ति ब्रह्म प्राप्ति की दिशा में है। यही हमारी प्रकृति भी है। इस संसार में समस्त जड़ चेतन अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार प्रवृत्तिरत है। जीव भी इसका अपवाद नहीं हो सकता। उसे ब्रह्म प्राप्ति ही अभीष्ट है। उसके बिना इसका काम क्षण भर भी नहीं चल सकता, इस प्रकृति के विरुद्ध उसे क्षण भर भी चैन नहीं पड़ सकता।
इतना होते हुए भी देखा यह जाता है कि प्राणी अनैतिक, दुष्कर्मों में अधिक रुचि लेता है और आलस और अहङ्कार वासना और तृष्णा के फेर में पड़ा हुआ लोभवश उस ओर चलता है जिस ओर अन्धकार और असन्तोष ही उपलब्ध होने वाला है। इसका कारण जड़ता का जीव पर पड़ने वाला प्रभाव ही है। यह स्पष्ट है कि प्राणी जड़ और चेतन तत्वों का सम्मिश्रित रूप है। चेतन तत्व-ब्रह्म की स्थिति उसे सत्, चित् और आनन्द की ओर उन्मुख रखती है। किन्तु जड़ता के प्रभाव से भी वह अछूता नहीं रहता। प्रकृति की, माया की, जड़ता की छाया भी उस पर बनी रहती है। इस प्रभाव के कारण ही उसे अपना मार्ग निश्चित करने में, उचित गतिविधियाँ अपनाने में बाधा पड़ती है। इसी खींचतान में वह दिग्-भ्रान्त हो जाता है।
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