आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
जीव पर दो प्रकृतियों की छाया
दो वस्तुओं के मिलने से एक तीसरी चीज बनती है। दिन और रात्रि की मिलन बेला को संध्या कहते हैं। संध्या न रात है और न दिन, पर ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उसमें दोनों का ही अस्तित्व मौजूद है। सोड़ा कास्टिक और तेल मिल कर साबुन बन जाता है। साबुन न तेल के सदृश है और न सोड़ा के। उसका रूप दोनों से भिन्न है। फिर भी परीक्षण के बाद उन दोनों ही वस्तुओं का साबुन में अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है। प्राणी भी ऐसे ही दो सम्मिश्रणों का एक तीसरा रूप है। परब्रह्म परमात्मा और पंच भौतिक प्रकृति इन दोनों के सम्मिश्रण से जो तीसरी सत्ता उत्पन्न होती है उसका नाम जीव है। ब्रह्म चेतन है इसलिए उसका गुण आत्मिक चेतना, अन्त:करण एवं भावना के रूप में मौजूद है। प्रकृति जड़ है इसलिए शरीर का सारा ही ढाँचा जड़ है। जीव की चेतना एवं प्रेरणा से वह चलता है। जब वह चेतना तनिक भी अशक्त या अस्त-व्यस्त होती है तो शरीर का सारा ढाँचा ही लड़खड़ा जाता है सारा खेल ही खतम हो जाता है। साइकिल चलाने वाले के पैरों में जब तक दम है तभी तक पहिये घूमते हैं जब पैर थक गये तो साइकिल का चलना भी बन्द हो जाता है। शरीर में जो क्रियाशीलता दिखाई पड़ती है। वह जीव की उपस्थिति और शक्ति का चिन्ह है। यह शक्ति कुण्ठित होते ही शरीर दुर्बल, वृद्ध, रुग्ण और मृतक बन जाता है और तब वह घृणित लगने लगता है। निर्जीव होने पर तो जल्दी से जल्दी उसकी अन्त्येष्टि ही करनी पड़ती है। पंच तत्व अपने अपने तत्वों में मिल जाते हैं वह सम्मिश्रण समाप्त हो जाने से दोनों को अपने अपने स्वतंत्र रूप में पहुंच जाना पड़ता है।
जड़ और चेतन के अपने-अपने गुण धर्म भी हैं। ईश्वर चेतन है इस लिए उसका अंश-जीव-चेतन तो है ही साथ ही उसमें वे सब विशेषताएँ भी बीज रूप में मौजूद हैं जो उसके मूल उद्गम ब्रह्म में ओतप्रोत हैं। ईश्वर सत्चित् और आनन्द स्वरूप है। जीव में भी सत्य में ही प्रसन्नता तथा सन्तोष अनुभव करने की प्रकृति है। कोई व्यक्ति स्वार्थवश स्वयं भले ही दूसरों से असत्य व्यवहार करते हैं तो बड़ा अप्रिय लगता है और दुःख होता है। हर किसी को यही पसन्द होता है कि दूसरे उसके साथ पूर्ण निष्कपट तथा सचाई का व्यवहार करें, छल और धोखे की बात सुनते ही मन में भय आशङ्का और घृणा उत्पन्न होती है। इससे स्पष्ट है कि जीव अपने उद्गम केन्द्र ब्रह्म का 'सत्' गुण अपने अन्दर गहराई तक धारण किये हुए है।
चित् अर्थात् चेतना सक्रियता। जीव भी ईश्वर की भाँति ही आजीवन, निरन्तर, सक्रिय रहता है। सोते समय, मूर्छा के समय केवल मस्तिष्क का एक छोटा भाग अचेत होता है। बाकी समस्त शरीर हर घड़ी काम करता रहता है। रक्त सञ्चार, श्वास-प्रश्वास, पाचन, स्वप्न आदि की क्रियाएँ बराबर चलती रहती हैं। शरीर के सभी कल पुर्जे अचेतन कहे जाने वाले मस्तिष्क के सहारे ठीक वैसा ही काम करते रहते हैं जैसे जागते रहने पर होता था। विचार, भावना, विवेक, उत्साह, स्फूर्ति एवं क्रियाशीलता को चेतनता का ही अङ्ग कहा जायेगा। ईश्वर चित् अर्थात् चेतन है तो जीव भी वैसा ही क्यों न रहेगा। जब परमात्मा की सत्ता समस्त ब्रह्माण्ड में व्यापक होकर असंख्य प्रकार की प्रक्रियाएँ निरन्तर सञ्चारित रखती है तो जीव भी पिण्ड में, शरीर में व्याप्त होकर अहिर्निश अपना चेतना व्यापार क्यों जारी न रखेगा?
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