आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की सारी समस्याएँ इन पाँच वर्गों के अंतर्गत आ जाती हैं-
(१) शारीरिक
(२) मानसिक
(३) आर्थिक
(४) पारिवारिक तथा
(५) आत्मिक।
(१) सर्वप्रथम समस्या स्वास्थ्य संकट की है। हममें से अधिकांश को शारीरिक दुर्बलता घेरे रहती है और बीमारियों का दौर चढ़ा रहता है। विचारणीय है कि ऐसा क्यों होता है ? सृष्टि में असंख्य प्राणी हैं। वे जन्मते-मरते तो हैं पर बीमार कोई नहीं पड़ता।
मनुष्य और उसके शिकंजे में कसे हुए थोड़े-से पालतू पशुओं को छोड़कर स्वच्छंद निर्वाह करने वाले जीव-जंतुओं में से किसी को दुर्बलता या रुग्णता की व्यथा नहीं सहनी पड़ती। बुढ़ापा और मृत्यु का सामना तो सबको करना पड़ता है, पर जब तक जीता है, तब तक समूचा प्राणी जगत् निरोग हो जाता है। अकेले मनुष्य पर ही दुर्बलता और रुग्णता की घटाएँ छाई रहती हैं। इस अपवाद का कारण एक ही है-उसका आहार-विहार संबंधी असंयम, प्रकृति के निर्देशों का धृष्टतापूर्वक उल्लंघन।
जीभ का चटोरापन- स्वादिष्टता के नाम पर अभक्ष्य पदार्थों का समय-कुसमय अनावश्यक मात्रा में उदरस्थ करते रहने से पेट की क्षमता नष्ट होती है और वह अत्याचार-पीड़ित, दीन-दुर्बल की तरह अपना काम निपटाने में असमर्थ हो जाता है। पेट की अपच हजार बीमारियाँ उत्पन्न करती है, यह तथ्य सर्वविदित है। लुकमान सही कहते थे कि "मनुष्य अपने असमय मरने और गड़ने के लिए अपनी कब्र आप खोदता है।" इंद्रिय असंयम से वह अपने शक्ति भंडार को होली की तरह जलाता है और बर्फ की तरह अपने पौरुष को गलाकर समाप्त करता है। अस्त-व्यस्त दिनचर्या, आलस्य, प्रमाद, गंदगी जैसे दुर्गुण अपनाने वाले, प्रकृति की प्रेरणाओं और नियत मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले नियति की दंड व्यवस्था से बच नहीं सकते। उन्हें रुग्णता की व्यथा सहनी ही पड़ेगी।
इसका निवारण दवादारु की जादूगरी से नहीं हो सकता। यदि असंयमी जीवन जीने पर भी दवादारू के सहारे स्वास्थ्यरक्षा संभव रही होती तो अमीरों ने और चिकित्सकों ने अब तक हाथी जैसा स्वास्थ्य सँजो लिया होता। प्रकृति की उदंड अवज्ञा करने वाले अपराधी क्षमा योग्य नहीं होते और आये दिन रुग्णता से कराहते हैं। यदि हमें सचमुच ही स्वास्थ्य की स्थिरता अपेक्षित हो तो उसका एकमात्र उपाय प्राकृतिक जीवन है। आहार-विहार का संयम कड़ाई से पालन करने के अतिरिक्त और किसी उपाय से स्वास्थरक्षा की समस्या हल नहीं हो सकती।
कहना न होगा कि इंद्रिय-लिप्साओं से छुटकारा पाना, सुव्यवस्थित जीवनक्रम अपनाना शारीरिक क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली अध्यात्म प्रक्रिया ही है। आत्मसंयम और आत्मानुशासन का नाम ही अध्यात्म है। उसका प्रयोग यदि विवेकशीलता और दूरदर्शिता अपनाते हुए स्वास्थ्य प्रयोजन के लिए किया जाता रहे, तो हममें से किसी को भी न तो दुर्बलता घेरेगी और न रुग्णता छाई रहेगी। अब या अब से हजार वर्ष बाद जब भी स्वास्थ्य संकट से निपटना आवश्यक प्रतीत होगा और उसका स्थिर समाधान खोजा जायेगा तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ेगा कि जीवनचर्या का निर्धारण अध्यात्मवादी दृष्टिकोण से किया जाए और शारीरिक संपदा का उपयोग करने में प्रकृति निर्देशों का पालन करने के लिए कड़ाई के साथ संयम बरता जाए। जिस दिन यह तथ्य हृदयंगम कर लिया जायेगा, उसे व्यावहारिक जीवन में उतार लिया जायेगा, उस दिन स्वास्थ्य संकट का अंधकार कहीं भी दृष्टिगोचर न होगा।
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- अध्यात्मवाद ही क्यों ?