आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
|
5 पाठकों को प्रिय 190 पाठक हैं |
अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
(२) मानसिक उद्विग्नता मनुष्य जीवन के अंतर्गत उपस्थित दूसरा संकट है। हममें से अधिकांश व्यक्ति उद्विग्न, निराश, चिंतित, विक्षुब्ध, भयभीत, कायर, असंतुष्ट पाए जाते हैं। मानसिक दृष्टि से शांत, संतुष्ट, संतुलित और प्रसन्न कोई विरले ही दीख पड़ेंगे। इसके लिए दूसरों के व्यवहार और परिस्थितियों को भी सर्वथा निर्दोष तो नहीं कहा जा सकता, पर यह स्वीकार करना ही होगा कि इससे बहुत बड़ा कारण अपने चिंतन तंत्र की दुर्बलता ही रहती है। हम अपनी ही इच्छा की पूर्ति चाहते हैं, हर किसी को अपने ही शासन में चलाना चाहते हैं और हर परिस्थिति को अपनी मर्जी के अनुरूप बदलने की अपेक्षा करते हैं। यह मूल गति है कि यह संसार हमारे लिए ही नहीं बना है, इसमें व्यक्तियों का विकास अपने क्रम से हो रहा है और परिस्थितियाँ अपने प्रवाह से बह रही है। हमें उनके साथ तालमेल बिठाने की कुशलता प्राप्त करनी चाहिए।
परिस्थितिजन्य असंतोष भी अधिकांश में तो अपने चिंतन दोष के कारण उत्पन्न होते हैं। यदि अमीरों के साथ अपनी तुलना की जाए तो स्थिति गरीबों जैसी प्रतीत होगी और दुःख बना रहेगा। यदि उसकी तुलना मापदंड को गरीबों के साथ सदा किया जाए तो प्रतीत होगा कि अपनी वर्तमान स्थिति में लाखों-करोड़ों से अच्छी है। गरीबी और अमीरी सापेक्ष है। बड़े अमीरों की तुलना में हर कोई गरीब ठहरेगा और हर गरीब को अपने से अधिक अभावग्रस्त दिखाई पड़ेंगे। उनसे तुलना करने पर वह अपने को सुसंपन्न अनुभव कर सकता है। दृष्टिकोण सही होने से व्यक्ति अपने विकास के लिए प्रयास करते हुए भी असंतोष और घुटन से बच सकता है।
दूसरों के व्यवहार के संबंध में भी यही सिद्धांत लागू होता है। हर व्यक्ति तम और सत् के ईंट-चूने से बना है। इसमें बुराइयाँ भी हैं और अच्छाइयाँ भी। जब छिद्रान्वेषण का हरा चश्मा पहन लिया जाता है, तो हर वस्तु, हर प्राणी हरा दीखेगा। दोष ही ढूँढ़ते रहें तो हर किसी में यहाँ तक कि सूर्य और भगवान् में भी मिल जायेंगे और उन पर क्रोध करना पड़ेगा, किंतु यदि अच्छाइयाँ तलाश की जाएँ तो एक भी पदार्थ या प्राणी ऐसा न मिलेगा कि जिसमें श्रेष्ठता का सर्वथा अभाव हो। यदि गुण दर्शन की दृष्टि हो तो बदला हुआ चश्मा सर्वत्र ईश्वर की सत्ता का आलोक देख सकेगा। जिन लोगों के अपकार गिनते रहा गया है, वे शत्रुवत् प्रतीत होंगे किंतु जब उनके उपकारों को याद किया जाए, तो प्रतीत होगा कि उनके मित्र व्यवहार की सूची भी छोटी नहीं है।
सुखों की अपनी उपयोगिता है, साधन-संपन्नता के सहारे प्रगति क्रम में सुविधा होती है- यह सर्वविदित है, पर यह भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि कठिनाइयों की आग में पककर खरा और सुदृढ़ बना जाता है। सोने को अग्नि परीक्षा में और हीरे को खराद पर चढ़ने में कठिनाई का सामना तो करना पड़ता है पर उसका मूल्यांकन, उससे कम में हो भी तो नहीं सकता। कठिनाइयों के कारण मनुष्य में धैर्य, साहस, कौशल, पराक्रम जैसे कितने ही सद्गुण विकसित होते हैं, जागरूकता बढ़ती है और बहुमूल्य अनुभव एकत्रित होते हैं। अभावों और संकटों में दुर्बल मनःस्थिति के लोग तो टूट जाते हैं, पर जिनमें जीवन है वे चौगुनी, सौगुनी शक्ति के साथ उभरते देखे गए हैं। संपन्नता की अपनी उपयोगिता है और विपन्नता का अपना महत्त्व है। यदि दोनों का समुचित लाभ उठाया जा सके, तो यह उभयपक्षीय अनुदान प्रगति के पथ पर अग्रसर करने के लिए अपने-अपने ढंग से सहायता करते दिखाई पड़ेगा।
|
- अध्यात्मवाद ही क्यों ?