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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


नमक और मीठा परस्पर विरोधी है तो भी उनसे स्वाद संतुलन बनता है। तानों और बानों के धागे एक-दूसरे से विपरीत दिशा में चलते हैं पर उनका गुँथन उपयोगी वस्त्र बनकर सामने आता है। रात्रि और दिन की स्थिति में भिन्नता ही नहीं विपरीतता भी है पर उनके समन्वय से ही समय-चक्र घूमता है। विपरीतताओं का समन्वय ही संसार है। जीवन शृंखला इन विचित्रताओं की कड़ियों से मिलकर बनी है। हमें दोनों की उपयोगिता समझनी चाहिए।

पुण्यात्माओं से बहुत कुछ सीखा जाता है और पापियों को सुधारने की नीति अपनाकर आत्म परिष्कार कर अपनी करुणा, सहृदयता, सेवा भावना को विकसित करने का अवसर मिल सकता है। दुरंगी दुनियाँ की विचित्रता से खिन्न होने की अपेक्षा यह अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण है कि उसके सहारे खट्टे-मीठे अनुभव प्राप्त किए जाएँ और इन परस्पर परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के लाभ लिये जाएँ। जिनका चिंतन आध्यात्मिक स्तर का होगा, वे समुद्र में आने वाले ज्वार-भाटे से भयभीत न होंगे वरन् इतना भर सोचेंगे कि किस स्थिति का किस प्रकार सामना किया जाए और उससे क्या लाभ उठाया जाए ?

मानसिक संतुलन बना रहे तो घाटा, शोक, विरोध, अभाव जैसी विपन्नता भी विचलित न कर सकेगी। क्रांतिकारी शहीदों ने फाँसी के तख्ते हँसते हुए चूमे थे। बढ़े-चढ़े त्याग, बलिदान प्रस्तुत करने वाले महामानवों के चेहरे पर विषाद की एक भी लहर उत्पन्न नहीं होती। यदि घटनाओं में ही सारी शक्ति रही होती, तो वे सभी पर एक जैसा असर डालती। पर देखा जाता है कि उसी स्थिति में एक व्यक्ति सिर धुनता है और दूसरा बिना किसी हैरानी के काम करता है। यह मानसिक स्तर का ही परिचय है।

आत्मिक दृष्टिकोण मानसिक संतुलन की दृष्टिकोण के परिष्कार की प्रेरणा देता है यदि उसे अपनाया जा सके तो मनुष्य जीवन में शोक-संतापों की, उद्वेग-विक्षोभों की समस्या का सहज ही समाधान हो सकता है। यह कार्य इच्छित परिस्थितियाँ बना देने से संभव नहीं हो सकता। इच्छाओं की कोई सीमा नहीं, एक की पूर्ति होते ही दूसरी उठ खड़ी होती है, वह उससे भी बड़ी दुःखदायी होती है और अभाव-असंतोष जहाँ का तहाँ बना रहता है। यदि साधन जुटा देने भर से सुख-संतोष प्राप्त करना संभव रहा होता, तो सभी साधन संपन्न व्यक्ति संतुष्ट पाए जाते किंतु वे तो अभावग्रस्त लोगों की अपेक्षा और भी अधिक विक्षुब्ध पाए जाते हैं। मनुष्य की दूरदर्शिता जब कभी गंभीरतापूर्वक आजीवन प्रसन्नता बनाए रहने का उपाय खोजेगी, तब उसे एक ही मार्ग मिलेगा कि अध्यात्मवाद की नीति अपनाई जाए और मनःक्षेत्र को परिष्कृत किया जाए।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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