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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


(३) शारीरिक अस्वस्थता और मानसिक उद्विग्नता की समस्याओं पर विचार करने के उपरांत आइए अब आर्थिक समस्या पर विचार करें। यह हर किसी के सामने मुँह बायें खड़ी हैं। ऐसे लोग कोई बिरले ही मिलेंगे, जो अपने को अधिक दृष्टि से संतुष्ट कह सकें। हर व्यक्ति अपने इस अभाव को दूर करने के लिए बहुत चिंतित दिखाई पड़ता है। बहुत हाथ-पैर पीटने पर बात उतनी नहीं बनती, जितनी आवश्यकता अथवा इच्छा है। इसे व्यापक दरिद्रता का संकट कहा जा सकता है। इस समस्या पर भी विचार किया जाना चाहिए और उसका स्थिर समाधान खोजा जाना चाहिए।

पहले यह विचार करना होगा कि धन आखिर है क्या ? मानवी बल और बुद्धिबल का विभिन्न प्रयोजनों में प्रयोग करने से जो उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, उन्हें संपत्ति कहा जा सकता है। धन की सही परिभाषा यही है। अर्थशास्त्र का आरंभ यहीं से होता है। जुआ, सट्टा, लाटरी, ब्याज, उत्तराधिकार, गढ़ा खजाना आदि के रूप में बिना श्रम की संपत्ति कई लोग प्राप्त कर लेते हैं, पर उसे अपवाद कहना चाहिए। इस प्रकार की संपदा के प्रति औचित्य की मान्यता बदली जानी चाहिए, अन्यथा विडंबना बनी रहेगी। आज नहीं तो कल वह दिन आकर ही रहेगा, जब अर्थशास्त्र का शुद्ध अध्यात्म सम्मत सिद्धांत ही सर्वमान्य होगा। शारीरिक और मानसिक श्रम का उचित मूल्य ही लोग धन के रूप में प्राप्त कर सकेंगे।

अधिक धन उपार्जित करके अधिक सुख-साधन प्राप्त करने की इच्छा हो तो अपनी शारीरिक श्रम-क्षमता और मानसिक दक्षता बढ़ाई जानी चाहिए। इस दृष्टि से जो जितना आगे बढ़ेगा, वह उतना धन प्राप्त करेगा। अपना दुर्भाग्य यह है कि हम श्रम से जी चुराने की प्रकृति अपनाते हैं और आरामतलबी से समय गुजारना चाहते हैं। श्रम की अप्रतिष्ठा हमारा सामाजिक दोष है। हरामखोरों को बड़ा आदमी एवं भाग्यवान् कहा जाता है। श्रमजीवी अभागे और अछूत माने जाते हैं। यह प्रवृत्ति बदली जानी चाहिए। संपन्नता को खरीदने के लिए श्रम-क्षमता विकसित की जानी चाहिए।

शरीर की तरह ही मस्तिष्क भी उपार्जन का साधन है। शिक्षा, शिल्प, कला कौशल, व्यावहारिक मधुरता आदि वरिष्ठता के सहारे अधिक धन कमाया जा सकता है। हम लक्ष्मी पूजन जैसे किसी आकस्मिक संयोग से धन प्राप्त करने की बात सोचते हैं और चाहते हैं कि अकर्मण्यता-अदक्षता जहाँ की तहाँ बनी रहे। आलस्यप्रमाद में कमी न करनी पड़े और प्रचुर मात्रा में धन ऐसे ही आसमान से छप्पर फाड़कर बरस पड़े। यह अनात्मवादी मान्यता ही अर्थसमस्या का मूल कारण बन जाती है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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