आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
आध्यात्मिक दृष्टिकोण संपन्नता का औचित्यपूर्ण मार्ग सुझाता है। हमें अधिक परिश्रम के लिए उत्साह उत्पन्न करना चाहिए। हरामखोरी और कामचोरी को भी नैतिक अपराधों की श्रेणी में गिनना चाहिए। दक्षता बढ़ाने के लिए अधिक सीखने, अधिक जानने और अधिक सुयोग्य बनाने के लिए सदैव सचेष्ट रहना चाहिए। इस बढ़ी हुई दक्षता की कीमत पर निश्चय ही अधिक धन प्राप्त किया जा सकेगा और उससे उचित सुख-सुविधा का उपयोग किया जा सकेगा। आर्थिक प्रगति का यही राजमार्ग है। इसे छोड़कर सस्ते में सरलतापूर्वक बहुत जल्दी अधिक धन प्राप्त करने की बात सोचना प्रकारांतर से अनैतिक एवं अपराधी प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए अग्रसर होना है।
ठगी, चोरी, बेईमानी, लूट, डकैती, रिश्वत, मिलावट, कमतौल, मुनाफाखोरी, करचोरी, तस्करी आदि अनैतिक अपराधों के पीछे उनके कर्ताओं की ही प्रकृति काम कर रही होती है कि बिना उचित क्षमता एवं श्रमशीलता के स्वल्प काल में अधिक धन कमा लिया जाए। कमजोर प्रकृति के लोग मिलावट, कम तौलना जैसे सरल अपराध कर पाते हैं, दुस्साहसी भयंकर कुकृत्य कर गुजरते हैं। दिशा एक है, प्रयोग करने की स्थिति भर अलग है। यह गंभीरतापूर्वक समझा जाना चाहिए कि यह अपराधी प्रकृति मानवी चरित्र का सर्वनाश करती है, उसकी प्रामाणिकता और प्रतिष्ठा नष्ट करके, अस्पृश्य संक्रामक रोग से ग्रसित की तरह उसे घृणास्पद बना देती है।
अनैतिकता अपनाकर जीवनयापन करने वाला—मनुष्य अमीर भले ही हो जाए, पर उसका व्यक्तित्व दिन-दिन पतन के गर्त में गिरता जायेगा। आत्म प्रताड़ना उसे जर्जर बना देती है। अपनी नजर में गिरा हुआ मनुष्य किसी अन्य की नजर में ऊँचा नहीं उठ सकता। आत्मा और परमात्मा को अदालत में जघन्य अपराधियों की तरह लज्जित खड़े होने वालों को अमीरी कितनी महंगी पड़ती है, इसे गंभीरतापूर्वक समझने का प्रयत्न किया जाए तो कदाचित् ही किसी की हिम्मत उस मार्ग पर चलने की न हो। अवांछनीय धनलिप्सा ही समस्त दुष्कर्मों की जननी है। वह व्यसन, अनाचार, विलासिता, फिजूलखर्ची जैसे अनुपयुक्त मार्गों में खर्च होता है और उससे अन्य प्रकार की नई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
उपार्जन की क्षमता बढ़ाने के अतिरिक्त आर्थिक संतुलन का दूसरा उचित उपाय यह है कि आमदनी के अनुरूप खर्च किया जाए और बजट बनाकर चला जाए। सादगी से रहा जाए। अपनी जितनी आमदनी के दूसरे समझदार लोग जिस स्तर का जीवनयापन करते हैं, उसका अनुसरण किया जाए। यदि आमदनी नहीं बढ़ सकती, तो खर्च सीमित रहने चाहिए, विशेषतया नये खर्चे तो सिर पर लादना ही नहीं चाहिए। बच्चों की संख्या बढ़ाना भी आर्थिक संकट मोल लेने जैसा ही है। इसके कारण सारा परिवार अर्थाभाव में पिसता है। बच्चों का विकास भी नहीं हो पाता। उनकी आत्मा इस दयनीय स्थिति के लिए उन्हीं मूर्यों को कोसती है, जो संतानोत्पादन से पूर्व इस नये उत्तरदायित्व के निर्वाह में असमर्थ होते हुए भी अंधेरे में कदम बढ़ाते चले गए।
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- अध्यात्मवाद ही क्यों ?