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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


आध्यात्मिक सिद्धांत के अनुसार परिवार में क्रियाशीलता बढ़ाकर भी संकट की चिंता से बचा जा सकता है। एक कमाए सब खाएँ की परंपरा अपने घरों में चल रही है। इसे छोड़कर छोटे गृहउद्योगों की व्यवस्था हर घर में की जा सकती है और खाली समय में कुछ कमा लेने का उत्साह उत्पन्न हो तो ऐसे उपाय सहज ही खोजे जा सकते हैं, जिनमें आजीविका वृद्धि की दिशा में प्रगति हो सके।

ऋण लेने की आदत बेईमानी का ही छोटा रूप है। आपत्तिकाल में अलग किसी व्यवसायिक प्रयोजन के लिए पूँजीरूप में ऋण लिया जा सकता है, किंतु खर्च बढ़ा लेने और उसकी पूर्ति ऋण लेकर करना ऐसा अविवेक है, जिसका दुष्परिणाम एक दिन दिवालिया बन जाने, बेईमान कहलाने और तिरस्कार सहने के रूप में सामने आता है। आध्यात्मिक आदर्शों से प्रभावित व्यक्ति आवश्यकताओं को सीमित रखने में समर्थ होता है तथा ऋणी बनना पसंद नहीं करता इसलिए इस विडंबना से बच जाता है।

अपने देश में सामाजिक कुरीतियाँ अर्थ संकट उत्पन्न करने का बहुत बड़ा कारण है। विवाह-शादियों में होने वाले अपव्यय कुरीतियों में सर्वप्रथम है। मृतक भोज, धर्माडंबर की आड़ में कुपात्रों से जेब कटाते रहना जैसी अनेक मूर्खताएँ अपने समाज में प्रचलित हैं, जिनके कारण असाधारण रूप से धन की बर्बादी होती है और लोगों को दरिद्र एवं बेईमान बनना पड़ता है और सभी कुप्रथाएँ भी ऐसी ही हैं, जिनको चौधरी-पंचों की लोकचर्चा की परवाह किये बिना एक ही झटके में उखाड़ फेंकना चाहिए। यह साहस विवेकवान् तथा आत्मबल संपन्न व्यक्ति ही कर सकते हैं।

अविवेकी लोग ओछे रास्ते अपनाकर, धनी बनना चाहते हैं किंतु अनाचार एक दिन प्रकट होकर ही रहता है, तब ग्राहकों के असहयोग का संकट उस उपार्जन को ठप्प करके रख देता है। कामचोर और बेईमान कर्मचारी कभी उन्नति नहीं कर सकते। ईमानदारी की नीति पर चलते हुए ही हर व्यक्ति प्रामाणिक बन सकता है। अपने श्रम एवं उत्पादन का प्रामाणिकता के आधार पर अधिक मूल्य पा सकता है एवं अधिक सम्मान भी।

अर्थक्षेत्र में श्रमनिष्ठा, मनोयोगपूर्वक कार्य संलग्नता, ईमानदारी, प्रामाणिकता, सादगी, मितव्ययिता यह सभी गुण अध्यात्म आदर्शों के अनुरूप हैं। इन्हें अपनाए बिना अर्थ संकट से बचे रहने का, अर्थ उपार्जन तथा संतुलन का और कोई मार्ग नहीं। अनीति की कमाई का आकर्षण तथा मूर्खतापूर्ण अपव्यय की आदत ही अर्थ संबंधी विकृतियों का कारण बनती है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण का व्यक्ति इन दोनों से सहज ही बच जाता है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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