आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
|
5 पाठकों को प्रिय 190 पाठक हैं |
अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
अनुत्पादकता तथा जमाखोरी को आर्थिक संतुलन के लिए विष माना जाता है। 'कमाया सौ हाथ से जाए, पर दान हजार हाथ से करें, की नीति अध्यात्म की परंपरा है। वह संतोष हानिकारक है, जिससे मनुष्य अकर्मण्य बनता है और उत्पादन से हाथ सिकोड़ता है। हर व्यक्ति को राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ाने के लिए अथक परिश्रम करना चाहिए। अंतर इतना ही है कि वह उपार्जन एकाकी उपयोग में न लगाकर, सार्वजनीन हित-साधन में लगाता रहे। निषेध एकाकी उपयोग का है, उसी के संबंध में कहा गया है कि "जो आप ही कमाता और आप ही खाता है वह चोर है।" यह अध्यात्म सम्मत अर्थनीति ही व्यक्ति और समाज की सुख-शांति में वृद्धि कर सकती है और इसी को अपनाकर, अर्थ संकट से सदा के लिए छुटकारा पाया जाता है।
(४) चौथी समस्या पारिवारिक है। गृह-कलह से लोग अशांत पाये जाते हैं। ऐसे परिवार थोड़े-से ही मिलेंगे जिनमें स्नेह, सौजन्य, सद्भाव, सहयोग का वातावरण हो और छोटे-छोटे घरों में स्वर्गीय हर्षोल्लास का जीवन जिया जा रहा हो। बाहर से एक दिखते हुए भी मनोमालिन्य, असहयोग, उपेक्षा, अवज्ञा, आपाधापी की स्थिति बनी रहती है और अनुशासनहीनता पनपती रहती है। इन कारणों से परिवार संस्था नष्ट-भ्रष्ट होती चली जा रही है।
परिवार संस्था का महत्त्व समझा जाना चाहिए। व्यक्ति और समाज के बीच की कड़ी परिवार है। यही वह खदान है जिसका वातावरण सुसंस्कृत बना रहे, तो नर-रत्न निकलते रहेंगे। अपना गौरव और राष्ट्र का वर्चस्व बढ़ाते रहेंगे। परिवार घटकों का समूह ही समाज है। स्कूली शिक्षा से जानकारी भर बढ़ती है। गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर बनने वाला चरित्र तो परिवार की पाठशाला में ही बनता है। इसी व्यायामशाला में अभ्यास करके, व्यक्तित्व ढालने की प्रक्रिया संपन्न होती है। इन तथ्यों की उपेक्षा कर देने के, दुष्परिणाम ही पारिवारिक समस्याओं के रूप में सामने आते हैं।
आज परिवार की आर्थिक आवश्यकता पूरी करने भर का ध्यान रखा जाता है। अच्छा खिला-पहना दिया, पढ़ाई और शादी के साधन जुटा दिए, उत्तराधिकारियों के लिए धन छोड़ दिया तो पारिवारिक उत्तरदायित्वों की इतिश्री समझ ली गई। इसका अर्थ तो यह हुआ कि परिवार के सदस्य भौतिक यंत्र मात्र हैं, जिनकी आवश्यकताएँ भौतिक-साधनों तक जुटा दिया जाना पर्याप्त है। मोटर के लिए पेट्रोल, लुबरीकेशन, ग्रीस, पानी आदि जुटा देना पर्याप्त है, पर मनुष्य मशीन तो नहीं है। उसके भीतर जीवन और चेतना भी है। उस कल्पवृक्ष का पनपना और परिष्कृत बनना सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का खाद पानी पाकर ही संभव हो सकता है। यह साधन जुटाए जा सके, तो गरीबी में रहते हुए भी किसी परिवार के सदस्य नैष्ठिक नागरिकों की श्रेष्ठ सज्जनों की श्रेणी में गिने जा सकने योग्य बन सकते हैं।
|
- अध्यात्मवाद ही क्यों ?