आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
'आत्म-चेतना के विकास के साथ मैंने अनुभव किया कि संसार का प्रत्येक परमाणु आत्मामय है। जीव-जंतु ही नहीं वृक्ष-वनस्पतियों में भी वही एक आत्मा प्रभावित हो रहा है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ। मैं वृक्षों की प्रकृति पर विचार करते-करते इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इनमें जो काँटे हैं वह इनके क्रोध और रुक्षता के संस्कार हैं। संभव है लोगों ने उन्हें सताया, कष्ट दिया, इनकी आकांक्षाओं की ओर ध्यान नहीं दिया। इसीलिए यह इतने सुंदर फूल-फल देने के साथ ही काँटे वाले भी हो गए।
यदि ऐसा है तो क्या इन्हें प्रेम और दुलार देकर सुधारा जा सकता है ? ऐसा एक कौतूहल मेरे मन में जाग्रत हुआ। मैं देखता हूँ कि सारा संसार ही प्रेम का प्यासा है। प्रेम के माध्यम से किसी के भी जीवन में परिवर्तन और अच्छाइयाँ उत्पन्न की जा सकती हैं, तो यह प्रयोग मैंने पौधों पर करना प्रारंभ किया।
गुलाब का एक छोटा पौधा लगाया। तब उसमें एक भी काँटा नहीं था। मैं उसके पास जा बैठता। मेरे अंतःकरण से भावनाओं की सशक्त तरंगें उठतीं और पास के वातावरण में विचरण करने लगतीं। मैं कहता—मेरे प्यारे गुलाब ! लोग तुमको लेने इस दृष्टि से नहीं आते कि तुम्हें कष्ट दें। वह तो तुम्हारे सौंदर्य से प्रेरित होकर आते हैं। वैसे भी तो तुम्हारी सुवास विश्व-कल्याण के लिए ही है। जब दान और संसार की प्रसन्नता के लिए उत्सर्ग होना ही तुम्हारा ध्येय
है तो फिर वह काँटे तुम क्यों उगाते हो ? तुम अपने काँटे निकालना और लोगों को अकारण कष्ट देना भी छोड़ दो, तो फिर देखना कि संसार तुम्हारा कितना सम्मान करता है। अपने स्वभाव की इस मलीनता और कठोरता को निकालकर एक बार देखो तो सही कि यह सारा संसार ही तुम्हें हाथों-हाथों उठाने के लिए तैयार है या नहीं।
गुलाब से मेरी ऐसी बातचीत प्रतिदिन होती। भावनाएँ अंतःकरण से निकलें और वह खाली चली जाएँ, तो फिर संसार में ईश्वरीय अस्तित्व को मानता ही कौन ? गुलाब धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसमें सुडौल डालियाँ उँटी चौड़े-चौड़े पत्ते निकले और पाव-पाव भर के हँसते इठलाते फूल भी निकलने लगे, पर उसमें क्या मजाल कि एक भी कॉटा आया हो। आत्मा को आत्मा प्यार से कुछ कहे और वह उसे ठुकरा दे-ऐसा संसार में कहीं हुआ नहीं, फिर भला बेचारा नन्हा-सा पौधा ही अपवाद क्यों बनता। उसने मेरी बात सहर्ष मान ली और मुझे संतोष हुआ कि मेरे बाग का गुलाब बिना काँटों का था।
अखरोट का धीरे-धीरे बढ़ना मुझे अच्छा न लग रहा था। मैंने उसे पानी उतना ही दिया, खाद उतनी ही दी, निरायी और गुड़ाई में भी कोई अंतर नहीं आने दिया, फिर ऐसी क्या भूल हो गई, जो अखरोट ३२ वर्ष में ही बढ़ने की हठ ठान बैठा। मैंने समझा इसे भी किसी ने प्यार नहीं दिया।
मैंने उसे संबोधित कर कहा, मेरे बच्चे ! तुम्हारे लिए हमने सब जुटाया, क्या उस कर्त्तव्यपरायणता में जो तुम्हारे प्रति असीम प्यार भरा था, उसे तुम समझ नहीं सकते ? तुम मेरे बच्चे के समान हो, तुम्हें मैं अलग अस्तित्व दूं ही कैसे ? हम तुम एक ही तो हैं। आज माना कि दो रूपों में खड़े हैं, पर एक दिन तो यह अंतर मिटेगा ही क्या हम उस आत्मीयता को अभी भी स्थायित्व प्रदान नहीं कर सकते ? तुम उगो और जल्दी उगो। ताकि संसार में अपनी ही तरह की और जो आत्माएँ हैं, उनकी कुछ सेवा कर सको।
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