आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
अखरोट बढ़ने लगा और १६ वर्ष की आधी आयु में ही अच्छे-अच्छे फल देने लगा। इसी तरह कद्दू, आलू, नेक्टारीनेस, बेरीज, पापीज आदि सैकड़ों पौधों पर प्रयोग कर श्री बरबैंक ने उन्हें प्रकृति के समान गुणों वाले पौधों के रूप में विकसित कर यह दिखा दिया कि प्रेम ही आत्मा की सच्ची प्यास है। जिस प्रकार हम स्वयं औरों से प्रेम चाहते हैं, वैसे ही बिना किसी आकांक्षा के दूसरों को प्रेम लुटाने का अभ्यास करा सके होते तो आज सारा संसार ही सुधरा हुआ दिखाई देता। प्रेम का सिद्धांत ही एकमात्र वह साधन है जिससे छोटे-छोटे बच्चों से लेकर पारिवारिक जीवन और पास-पड़ोस के लोगों से लेकर सारे समाज राष्ट्र और विश्व को भी वैसा ही सुधारा-सँवारा, सँभाला जा सकता है, जैसे बरबैंक ने पेड़-पौधों को विलक्षण रूप से सँवारकर दिखा दिया।
चारों तरफ घटाटोप छाए जंगल से हम लोग मौन चले जा रहे थे। घनी गहरी झाड़ियों और पत्ती शाखाओं से लदी लता बेलियों के बीच राह, जैसी कोई चीज नहीं थी, परंतु हमारे मार्ग दर्शक इस जंगल में ऐसे जा रहे थे मानों वर्षों से दिन में कई बार आते जाते रहे हों। इस अतल अविभाज्य मौन में जो हस्तक्षेप होते थे, वे उन जीव-जंतुओं द्वारा ही होते थे, जो मार्ग में हमारे पास से निकल जाया करते थे। इनमें कई जानवर तो बहुत खूखार भी थे परंतु वे हमें देखकर कुछ नहीं करते। हमारे दर्शक नीची गर्दन किए हुए चुपचाप आगे चलते जा रहे थे। मार्ग में मिलने वाले सर्प, बिच्छू और भयानक हिंस्र जंतुओं की ओर वे आँख उठाकर भी नहीं देखते। हम उन जीव जंतुओं को देखकर भयभीत हो उठते, परंतु उनके कारण यात्रा में कोई व्यवधान नहीं होता।
ये पंक्तियाँ हैं मिस्र के योगी पर्यटक सुग्र-अल-जहीर के यात्रा वृत्त की जो उन्होंने मंगोलिया के घने जंगलों में एक लामा गुरु के साथ संपन्न की थी। घने जंगलों में घुसते हुए भी इसलिए डर लगता है कि वहाँ रहने वाले हिंस्र जीव-जंतुओं का खतरा रहता है और मंगोलिया के उस वन में जहाँ लता-वेल, पेड़-झाड़ी से कब कौन कीड़ा, साँप टपक पड़े अथवा कौन-सा हिंसक जानवर निकलकर आक्रमण कर दे, कोई ठीक नहीं, यह यात्रा निश्चित ही रोंगटे खड़े कर देने वाली थी, परंतु सुग्र अल-जहीर तथा उनके गुरु भाई के पास साँप पैरों में गिरकर भी चुपचाप चले गए। क्या सचमुच ऐसे खतरनाक स्थानों में जाकर और हिंसक जानवरों के बीच पहुंचकर भी सुरक्षित रहा जा सकता है ?
इस संबंध में महर्षि पंतजलि ने योगसूत्र में स्पष्ट कहा है-अहिंसा में दृढ़ स्थिति हो जाने पर उसके निकट सब प्राणियों का बैर छूट जाता है (साधन पाद ३५)। इसी कारण प्राचीन काल के महर्षि आश्रमों में गाय और सिंह, भेड़िया और बकरी एक ही स्थान पर रह लेते थे, सबमें आत्मदर्शन और किसी को किसी प्रकार कष्ट न पहुँचाने की दृढ़ स्थिति अंतःकरण में ऐसी सात्विक धारा इतने तीव्र और प्रबल वेग से प्रवाहित कर देती है कि उसके निकटवर्ती तामसी अंतःकरण भी उससे प्रभावित होकर हिंसक वृत्ति का परित्याग कर देता है। कई बार ऐसा भी होता है कि दूसरे प्राणियों के आक्रमण की अत्यंत उग्र भावना होती है, परंतु ऐसी स्थिति में भी अहिंसक व्यक्ति का कुछ नहीं बिगड़ता।
सुग्र-अल-जहीर ने अपनी पुस्तक 'सहस्र सिद्धों का मठ' में लिखा है-"हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते गए हमारा मार्ग और भी बीहड़ होता गया। खाई और घाटियाँ कदम-कदम पर आने लगीं। इसी समय रीछों का एक झुंड आया और हमें तीन दिशाओं से घेरकर जीभे लपलपाता खड़ा हो गया। हम सबके भयाक्रांत कंठों से अकस्मात चीखें निकल पड़ीं। वास्तव में इतने बड़े रीछ मैंने पहले कभी नहीं देखे थे।"
"हमारे मार्गदर्शक लामा ने दोनों हाथ उठाकर हमें आश्वस्त किया और हमारी ओर देखा, जैसे वे हमें हिम्मत बँधा रहे हों। फिर लामा उन भालुओं की ओर टकटकी बाँधकर देखने लगे। उनके नेत्रों से करुणा की धारा बह रही थी। चेहरे पर शांति और स्निग्धता के भाव थे। होठों पर मंद स्मिति मुस्कान थी। लामा उस समय प्रेम और शांति की प्रतिमूर्ति लग रहे थे। कुछ क्षणों तक ही उन्होंने लपलपाती जीभ वाले भालुओं की ओर देखा होगा कि वे भालू एक-एक कर तीनों ओर से हट गए तथा आस-पास की झाड़ियों में चले गए। मैं समझ नहीं पाया कि यह क्या हुआ।"
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