आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
इस छोटी-सी बात को न समझ पाने के कारण या तो लोग ईश्वर-प्रेम नाम पर कर्त्तव्य-परायणता से विमुख होते हैं अथवा पदार्थ या शारीरिक प्रेम (वासना) में इतने आसक्त हो जाते हैं कि प्रेम की व्यापकता और अक्षुण्ण सौंदर्य के सुख का उन्हें पता ही नहीं चलता। ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ विश्व सौंदर्य के प्रति अपने आपको समर्पित करना होता है। उसमें कहीं न तो आसक्ति का भाव आ सकता है और न विकार। यह दोष तो उसी प्रेम में होंगे, जिसे केवल स्वार्थ और वासना के लिए किया जाता है।
जीवन भर हम जिन व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं, ईश्वर प्रेम का प्रकाश उन सबके प्रति प्रेम के रूप में भी प्रस्फुटित होता है। इसलिए ईश्वर प्रेम और समाज-सेवा में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही स्थितियों में आत्म-सुख, आत्म-विश्वास और आत्म-कल्याण का उद्देश्य भगवान की प्रसन्नता होनी चाहिए। भगवान की प्रसन्नता का अर्थ है कि उस प्रेम में भय, कायरता, क्षणिक सुख का आभास न होकर शाश्वत् प्रफुल्लता और प्रमोद होना चाहिए। ऐसा प्रेम कभी बन्धनकारक या रुकने वाला नहीं होता। उसकी धाराएँ निरंतर जीवन को प्राणवान बनाती रहती हैं। वह मनुष्य ऊपर से चाहे कितना ही कठोर क्यों न दिखाई देता हो, उसके भीतर आत्मीयता की लहरें निरंतर हिलोरें ले रही होती हैं।
इंद्रियों के आकर्षण फुसलाने से नहीं, कठोरता से दमन किए जाते हैं और इसके लिए साहस की आवश्यकता होती है। जो आत्म-दमन कर सकता है, वही सच्चा विजेता है। सच्चा विजेता ही सच्चा प्रेमी और ईश्वर का भक्त होता है। यह बात कुछ अटपटी-सी लगती है, किंतु कर्मयोग के सच्चे साधक को कठोरता में भी भावशीलता का संपूर्ण आनंद मिलता है। इसलिए उसे मोह की आवश्यकता नहीं होती वरन् मोह के बीच में भी एक दिव्य प्रकाश की अनुभूति का आनंद लिया जा सकता है।
मर्यादाओं के पालन में जो कठोरता है, उसमें आत्मीयता का अभाव नहीं होता। अपनत्व तो संसार के कण-कण में विद्यमान है। ऐसा कौन-सा प्राणी है, ऐसा कौन-सा पदार्थ है जहाँ मैं नहीं हूँ। प्राणी-पशु, कीट-पतंग सभी के अंदर तो 'अहं भाव' से परमात्मा बैठा हुआ है, पर तो भी किसी के लिए वह बंधन तो नहीं है ? वह बंधन मुक्त आनंद की स्थिति है, इसलिए वह किसी को आनंद से गिराएगा क्यों ? वह दया और करुणा का सागर है, लोगों को उससे वंचित रखेगा क्यों ? लेकिन वह यह भी न चाहेगा कि एक जीव दूसरे जीव की आकांक्षाओं और मर्यादाओं पर छा जाए। संसार उसी का है, पर तो भी वह इतना दयालु है कि किसी पर अपनी उपस्थिति भी प्रकट नहीं करता, किंतु मर्यादाओं के मामले में वह कठोर और निपुण है। किसी भी दुष्कर्म को प्राणी उससे छिपाकर नहीं ले जा सकता।
उसका अपनत्व निष्काम है, इसलिए जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और अपने जीव भाव को ब्राह्मीभाव में परिणत करने के लिए मनुष्य को उन्हीं नियमों का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।
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