लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद

आत्मीयता का माधुर्य और आनंद

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4187
आईएसबीएन :81-89309-18-8

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

380 पाठक हैं

आत्मीयता का माधुर्य और आनंद


भारतीय संस्कृति में मोह और आसक्ति, वासना और फलाशा की निंदा की गई है। पर ऐसा कहीं नहीं बताया गया कि मनुष्य लौकिक कर्तव्यों का परित्याग करे। ईश्वर दर्शन, आत्म-साक्षात्कार स्वर्ग और सद्गति पुण्य और परमार्थ मानव-जीवन के अंतिम लक्ष्य हैं, अपूर्णता से पूर्णता की ओर तो उसे बढ़ना ही चाहिए। उसे लौकिक हितों से बढ़कर माना जाए तो भी कोई बुरा नहीं पर यह मानकर कि सांसारिक जीवन में कठिनाइयाँ ही कठिनाइयाँ, अवरोध ही अवरोध, भार ही भार हैं, उसे छोड़ना या उसे झींकते हुए जीना भी बुरा है, बुराई ही नहीं एक पाप और अज्ञान भी है, क्योंकि ऐसा करके यह रचयिता को 'अमंगल' होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है। संसार में भी जो पाप विकार और ध्वंसात्मक वृत्तियाँ पनपी वह इसी "नासमझी" का परिणाम हैं, जो वहाँ से प्रारंभ होती हैं, जहाँ से मनुष्य आत्मीय सद्भावना पराङमुख होता है। प्रेम एक शक्ति है जो उच्च आकांक्षाओं की पूर्ति करता है और यदि उसे कुपित न होने देकर जीवन में विचारों और भावनाओं के समावेश द्वारा पवित्र बनाए रखा जा सके तो पता चले कि प्रेम सृष्टि का सबसे अनोखा निर्माण है। मनुष्य तुच्छ से तुच्छ वस्तुओं तक में अपना सच्चा प्रेम आरोपित करके सुख और सद्गति प्राप्त कर सकता है।

लौकिक सुख का सच्चा आधार प्रेम है। नम्रता के साथ गर्व, धैर्य के साथ शांति, स्वार्थ के साथ आत्म-त्याग और हिंसा की भावनाओं को भी कोंमलता में बदल देने की शक्ति प्रेम में है। यह इंद्रिय वासनाओं को प्रसन्नता एवं जीवन में बदल सकता है, किंतु आवश्यक है कि प्रेमी का सर्वोच्च लक्ष्य प्रेममय होता ही रहे।

प्रेमास्पद के प्राणों में अपने प्राण, अपनी इच्छा और आकांक्षाएँ घुलाकर व्यक्ति उस "अहंता" से बाहर निकल आता है, जो पाप और पतन की ओर प्रेरित कर ऐसे दिव्य मनुष्य को नष्ट करता रहता है। प्रेमी कभी यह नहीं चाहता कि मुझे कुछ मिले वरन् वह चाहता है कि अपने प्रेमी के प्रति अपनी निष्ठा कैसे प्रतिपादित हो। इसलिए वह अपनी बातें भूलकर केवल प्रेमी की इच्छाओं में मिलकर रहता है। जब हम अपने आपको दूसरों के अधिकार में डाल देंगे, तो पाप और वासना जैसी स्थिति आएगी ही क्यों और तब मनुष्य अपने जीवन-लक्ष्य से पतित ही क्यों होगा ? सच्चा प्रेम तो प्रेमी की उपेक्षा से भी रीझता है। प्रेम की तो व्याकुलता भी मानव अंतःकरण को निर्मलशांति प्रदान करती है।

मन जो इधर-उधर के विषयों और तुच्छ कामनाओं में भटकता है, प्रेम उसके लिए बाँध देने को रस्सी की तरह है। प्रेम की सुधौ पिए हुए मन कभी भटक नहीं सकता, वह तो अपना सब कुछ त्याग करने को तैयार रहता है। जो समर्पित कर सकता है, पाने का सच्चा सुख तो उसे ही मिलता है। प्रेम को भोग तो क्या स्वर्ग भी आसक्त नहीं कर सकते और परमात्मा को पाने के लिए भी तो यह संतुलन आवश्यक है। प्रेम साधना द्वारा मनुष्य लौकिक जीवन का पूर्ण रसास्वादन करता हुआ पारमार्थिक लक्ष्य पूर्ण करता है। इसलिए प्रेम से बड़ी मनुष्य जीवन में और कोई उपलब्धि नहीं-

चढ़त न चातक चित कबहुँ, प्रिय पयोद के दोष।
"तुलसी" प्रेम पयोधि की, ताते माप न जोख।।


स्वाति नक्षत्र के बादल चातक के मुख पर क्या चुपचाप जल बरसा जाते हैं ? नहीं, वे गरजकर कठोर ध्वनि करते और डराते हैं। पत्थर ही नहीं कई बार तो रोष में भरकर बिजली भी गिराते हैं, वर्षा और आँधी के थपेड़े क्या कम कष्ट देते हैं ? किंतु चातक के मन में अपने प्रियतम के प्रति क्या कभी नाराजी आती है ? तुलसीदास ने बताया कि यह प्रेम की ही महिमा है कि चातक पयोद के इन दोषों में भी उसके गुण ही देखता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. सघन आत्मीयता : संसार की सर्वोपरि शक्ति
  2. प्रेम संसार का सर्वोपरि आकर्षण
  3. आत्मीयता की शक्ति
  4. पशु पक्षी और पौधों तक में सच्ची आत्मीयता का विकास
  5. आत्मीयता का परिष्कार पेड़-पौधों से भी प्यार
  6. आत्मीयता का विस्तार, आत्म-जागृति की साधना
  7. साधना के सूत्र
  8. आत्मीयता की अभिवृद्धि से ही माधुर्य एवं आनंद की वृद्धि
  9. ईश-प्रेम से परिपूर्ण और मधुर कुछ नहीं

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai