आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
अमंगल-सी दीखने वाली भगवान की सृष्टि में न कठिनाइयों के झंझावत कम हैं, न अभाव और कष्ट-पीड़ाएँ, एक-एक पग भार है और लक्ष्य प्राप्ति का बाधक है। पर यह केवल उनके लिए है जिन्होंने आत्म-तत्व को जाना नहीं। आत्मीयता तो समुद्र की तरह अगाध है, उसमें जितने गहरे पैठा जाए उतने ही बहुमूल्य उपहार मिलते और मानव-जीवन को धन्य बनाते चले जाते हैं।
कीटस अंग्रेजी के महान कवि ने थोड़ा-सा जीवन जिया, अभाव और कष्टों में जिया। कहते हैं कीट्स कई-कई दिन की सूखी रोटियाँ रख लिया करता था। वही जीवन निर्वाह की साधना होती थीं। ऐसी परिस्थितियों में कोई व्यक्ति यदि जी सकता है तो उसे किसी का परम प्रेमास्पद ही होना चाहिए। कीट्स के संबंध में ऐसा ही था। एक संपन्न परिवार की नवयुवती ने उसे प्रेम दिया था। वासना-रहित उस प्रेम ने ही कीटस की भावनाओं को इतना कोमल और संवेदनशील बनाया था। २१ वर्ष की स्वल्पायु में लिखी उसकी रचनाएँ प्रौढ़ कवियों को भी मात करती चली जाती हैं और जब यही प्रेम उससे छिना, कीट्स की प्रेमिका का विवाह किसी धन संपन्न परिवार में कर दिया गया तो उसका यही प्रेम परमात्मा के पैरों में समर्पित हो गया। 'दि लैमेंट' नामक गीत में उसकी यह संपूर्ण भाव-विभोरता छलक उठी है और उसने 'कीट्स' को अमर बना लिया है।
महाकवि कालिदास जब तक एक भावना-विहीन व्यक्ति थे, तब उन्हें यह भी सुधि न थी कि वे जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं, किंतु जब विद्योत्तमा के पावन प्रेम ने उसे झकझोरा तो कालिदास का संपूर्ण अंतःकरण अंगड़ाई लेकर जाग उठा। महाकवि के गीतों में भगवती सरस्वती को उतरना पड़ा।
कहते हैं कि एक बार विवाद उठ खड़ा हुआ कि कवि दंडी श्रेष्ठ हैं अथवा कालिदास। जब इसका निर्णय मानवीय-पंचायत न कर सकी तब दोनों सरस्वती के पास गए और पूछने लगे-'अंबे ! अब तुम्ही निर्णय कर दो हम दोनों में श्रेष्ठ कौन, बड़ा है ?'
भगवती ने मुस्कराते हुए कहा—'कविदंडी ! कविर्दंडी !! कवि तो दंडी ही है।'
महाकवि कालिदास ने भगवती के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण किया हुआ था। उन्हें यह निर्णय पक्षपातपूर्ण लगा। पूछ बैठे- "अंबे ! यदि दंडी ही कवि हैं तो फिर मैं क्या हुआ ?"
भगवती ने उसी स्नेह से कहा-"तात ! त्वं साक्षात सरस्वती। तुम तो साक्षात सरस्वती ही हो। हम और तुम दोनों अभिन्न हैं।" इस व्याख्यान से महाकवि का मन पश्चाताप से भर गया, उन्होंने तब जाना नि:स्वार्थ प्रेम की गौरव गरिमा कितनी महान है।
महाकवि तुलसी के अंतःकरण को प्रेम ने ही जाग्रत कर ईश्वर परायण बनाया था। सूरदास तब विल्वमंगल कहे जाते थे, चिंतामणि वेश्या के प्रति निश्छल प्रेम ने ही उनकी आत्मा को झंकृत किया था। प्रेम अध्यात्म की पहली और आखिरी सीढ़ी है। उस पर चढ़कर ही व्यक्ति निराकार सत्ता पर विश्वास की अनुभूति करता है। उसी में मिलकर ही वह अमरत्व का आनंद लूटता है। प्रेम का अभ्यास जीवन में न किया हो, ऐसा एक भी अध्यात्मवादी व्यक्ति नहीं मिलेगा, क्योंकि प्रेम नहीं होगा तो वह कैसे मानेगा कि संसार का आत्मीयता का माधुर्य और आनंद अंतिम सत्य पदार्थों में शरीर और संपत्ति में नहीं, भावनाओं में है, उसकी ही प्यास मनुष्य को चारों ओर दौड़ाती है।
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