आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
परमपिता, परमात्मा का हमसे कितना प्रेम है, उसने हमारे लिए अपने अमूल्य भंडारों को खोल रखा है। हम भी जो कुछ हमारे पास है उसे दे डालें। तन, मन, धन, योग्यता जो कुछ हो दूसरों के हित साधन के लिए समर्पित करें।
इसे देने में उत्सर्ग के मार्ग में व्यवसायिक बुद्धि को बीच में न आने दिया जाए। जो कुछ दें उसके बदले में कुछ प्राप्ति की आशा न रखें। जो अपने पास है उसे देते रहें, निस्वार्थ भाव से उत्सर्ग करते रहें। आप देखेंगे विश्व-प्रेम का स्रोत आप में उमड़ पड़ेगा। आप आनंदित हो उठेंगे। स्वयं ही नहीं सारे वातावरण को प्रेममय बना देंगे। लेने ही लेने की प्रवृत्ति में प्रेम का विकास असंभव है। लेने की प्रवृत्ति के कारण कुछ ही समय में कैकेई ने राजतिलक उत्सव को शोक में परिणत कर दिया था, किंतु उसके विपरीत राम और भरत के त्याग ने प्रेम की नई लहर बहा दी।
निस्वार्थ त्याग के पथ पर चलकर भेड़ चराने वाला बालक ईसा मसीह बन गया। त्याग के पथ का अवलंबन लेकर ही महात्मा गाँधी, सेंटपाल आदि ने जन-जन में उस प्रेम स्वरूप के दर्शन किए। निस्वार्थ त्याग ही प्रेम स्वरूप की उपलब्धि करा सकता है। अतः अपने पास जो कुछ है उसे उन्मुक्त भाव से लुटा दीजिए दूसरों के लिए। अपना सर्वस्व अर्पण कर दीजिए। आपका त्याग और निस्वार्थ भाव जितना उच्च होगा उतना ही आप में ईश्वरीय प्रेम, विश्व प्रेम का पुण्य प्रकाश प्रस्फुटित होगा, जिसके दिव्य प्रकाश से आपका जीवन धन्य बन जाएगा।
अहंकारी, अभिमानी, स्वार्थी एवं महत्त्वाकांक्षी के हृदय में विश्व प्रेम की अनुभूति नहीं हो सकती। इसलिए विश्व प्रेम के लिए अपने अहंकार को "मारना होगा"। अपने हृदय को खाली करो, मैं उसे प्रेम से भर दूंगा। इस ईश्वरीय महावाक्य में स्पष्ट संकेत है कि अहंकार को निकाल देने पर हृदय में ईश्वरीय प्रेम की प्रतिष्ठापना हो सकती है।
अहंकारी मनुष्य की शक्ति से विश्व प्रेम दूर होता है अहंकार किसका धन-दौलत, वैभव-ऐश्वर्य का ? नहीं यह सब यहीं छोड़ना पड़ेगा। नाम, पद, प्रतिष्ठा का अहंकार है तो यह रंगीन चोला यहीं उतारना पड़ेगा। बड़े-बड़े शक्तिवान सामर्थवान इस धूल में मिल गए हैं। फिर किसका अभिमान ? अपने आपको इस अहंकार के नागपाश से विमुक्त करके अपने हृदय में विश्व प्रेम की प्रतिष्ठापना कर अपना तथा अन्य लोगों का जीवन धन्य बनाइए। अपनी नई सृष्टि बसाने की कोशिश में जीवन न खोया जाए क्योंकि वह अस्वाभाविक है, असंगत है, ईश्वरीय विधान के विपरीत है, परिणाम दुःखदायी और विनाश ही है।
संसार के प्रत्येक तत्व में भलाई-बुराई सन्निहित हैं। न कोई पूर्णताः बुरा है और न कोई भला। मनुष्य के हृदय में भी विकारों के बीच ही प्रेम की जड़ जमी हुई है। शुभ तत्व बीज रूप में सभी में स्थित हैं। ऐसी दशा में बुराइयाँ ही देखना अथवा दूषित दृष्टिकोण को अपनाकर घृणा निंदा को गले लगाना प्रेम साधना के पथ में भारी विघ्न है। अपना दृष्टिकोण बदल जाने पर जो दूषित और बुरे तत्वों में भी अच्छाई और ईश्वरीय तत्व की झाँकी दृष्टिगत होती है। वहाँ भी उस प्रेम स्वरूप के दर्शन होते हैं, क्योंकि विश्व प्रेम की प्राप्ति में कहीं दोष, बुराइयाँ रहती ही नहीं हैं घृणा, परनिंदा से प्रेम मर जाता है अतः यह दृष्टिकोण त्याज्य है। इसके विपरीत अच्छाई का दर्शन करना आवश्यक है।
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