आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
प्रेम उपासना के लिए हृदय शुद्धि भी अत्यावश्यक है। अपने विकारों को समझकर यथावत् उन्हें दूर करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। इसके अतिरिक्त दूसरों के लिए अपना हृदय सदैव खुला रखना चाहिए। दुराव प्रेम साधना में बाधक है। हृदयों पर आधिपत्य किया जा सकता है। बुद्धि की दौड़ तर्क-वितर्क, चालाकी, प्रतिभा के प्रदर्शन से मित्र को भी पराया बना देती है। शुद्ध हृदय और निष्कपट व्यवहार से शत्र को भी मित्र बनाया जा सकता है। अतः भूलकर भी चालाकी दुराव-छिपाव से काम न लेकर सबसे निष्कपट व्यवहार एवं सहृदयता के संबंध कायम करने चाहिए।
प्रेम की साधना आत्म-भावों को जोड़ने और उनके विस्तार में ही है। साधारणतया मनुष्य उन वस्तुओं से प्रेम करता है, जिन्हें वह अपनी समझता है। जो उसे अच्छी लगती है जिनसे वह प्यार करता है। अच्छी लगने वाली वस्तुओं के मूल में वह आत्मभाव ही उनसे जुड़ा हुआ है। कोई अपने मकान संपत्ति से, कोई अपने बाल-बच्चों से, कोई अन्य चीजों से प्रेम करते हैं और दूसरों के बाल-बच्चों, धन, चीजों, मकान आदि से प्रेम नहीं करते, क्योंकि उनमें उसका आत्मभाव स्थित नहीं है, वह उन्हें अपना नहीं समझता। किसी भी वस्तु के आकर्षण में आत्मभाव जोड़ देने पर ही वह अच्छी लगती है। इसलिए विश्व प्रेम के लिए, सर्वत्र उस प्रेम स्वरूप के दर्शन के लिए, अपने आत्मभाव को चारों ओर जोड़ देना आवश्यक है।
अपने चारों ओर आत्मभाव आरोपित करके अपने-पराए की भेद दृष्टि हटा देनी चाहिए। सभी बच्चों, स्त्री-पुरुषों, पशु-पक्षियों से आत्मभाव स्थापित किया जाए। सर्वत्र अपना ही अपना नजर आएगा और उनसे प्रेम संबंध कायम होंगे। सभी को अपना समझने का अभ्यास डालना चाहिए। यदि कोई किसी अर्थ में बुरा भी है तो घृणा, निंदा न की जाए, क्योंकि जैसे कोई व्यक्ति अपनी संतान भाई-बंधु की बुराई को क्षमा करता हुआ उसे प्रकाश में नहीं लाता और प्रशंसा जनक बातों को ही प्रधानता देता है, यही भाव अन्य सभी से बनाना आवश्यक है।
विश्व प्रेम की साधना में मूल आधार है अपने आत्मभाव का विस्तार, इसका नियमित अभ्यास डालना आवश्यक है। इसका प्रारंभ अपने घर-पड़ौस से करना चाहिए। सर्वप्रथम अपने घर के लोगों से ही आत्मीयता के संबंध कायम करने चाहिए। उससे बढ़कर अपने पड़ौस, मुहल्ले, प्रांत, देश, समाज तक अपने आत्मभाव का विस्तार करना चाहिए और एक दिन यही भाव विश्व मानव के साथ स्थापित हो जाता है। पवित्र प्रेम का अभ्यास पहले अपने घर से ही प्रारंभ करना चाहिए। प्रेम की प्रारंभिक पाठशाला घर ही है और इससे बढ़कर फिर अपना क्षेत्र विस्तृत करते रहना चाहिए।
सेवा भी प्रेमोपासना का एक आवश्यक अंग है। दूसरों की अपने से जितनी सेवा बने उतनी भरपूर सेवा करनी चाहिए। वृद्ध, रोगी, बाल-बच्चों की खूब सेवा करनी चाहिए। इस संबंध में अपने जीवन से दूसरों को कुछ देते रहने की नीति अपनानी चाहिए। जीवन का उद्देश्य यही होना चाहिए।
प्रेम ही जीवन है। प्रेम साधना ही जीवन का उद्देश्य है। निखिल विश्व में उस अनंत, रस स्वरूप, प्रेम स्वरूप की दिव्य अनुभूति प्राप्त करना, हृदय में विश्व प्रेम को प्रतिष्ठापित करना ही आत्मा का उद्देश्य है।
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