आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
इसके परिणाम भी सदैव तीनों काल में दिव्य ही होते हैं। आत्म-विश्वास, साहस, निष्ठा, लगन और आशा आदि के जीवंत भाव प्रेमामृत की सहज तरंगें हैं। जिस प्रकार पर्वतों पर संचित हिम कुछ काल में परिपाक होने पर जल के रूप में बह-बहकर धरती को सराबोर कर देता है, उसकी जलन, उसका ताप और उसकी नीरसता हर लेता है, उसी प्रकार हृदय में संचित प्रेम भी परिपाक के पश्चात् बहकर मनुष्य और मनुष्यता दोनों को आनंद, उल्लास और प्रसन्नता से ओत-प्रोत कर देता है। प्रेम का अभाव मनुष्य को नीरस, शिथिल, अतृप्त और कर्कश बना देता है, जिससे जीवन का सौंदर्य, सारा आकर्षण और सारा उत्साह समाप्त हो जाता है। जो प्रेम का आदान-प्रदान नहीं जानता वह निश्चय ही जीना नहीं चाहता। वास्तविक जीवन का लक्षण प्रेम ही है।
संसार अंधकार का घर कहा गया है। विषय-वासनाओं के आसुरी तत्व यहाँ पर मनुष्य को अंधकार की ओर ही प्रेरित करते रहते हैं। संसार की इन अंधकारपूर्ण प्रेरणाओं के बीच प्रेम ही एक ऐसा तत्व है जिसकी प्रेरणा प्रकाश की ओर अग्रसर करती है। प्रेम ही आत्मा का प्रकाश है। इसका अवलंबन लेकर जीवन पथ पर चलने वाले सत्पुरुष काँटों और कटुता से परिपूर्ण इस संसार को सहजानंद की स्थिति के साथ पार का जाते हैं। प्रेम का आश्रय परमात्मा का आश्रय है। इस स्थूल संसार को धारण करने वाली सत्ता प्रेम ही है। यही प्रेम आत्मा के रूप में जड़ चेतन में परिव्याप्त हो रहा है। व्यक्ति और समष्टि में आत्मा का यह प्रकाश ही ईश्वर की मंगलमयी उपस्थिति का आभास करता है।
आत्मीयता मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति होती है। आत्मीयता की प्यास, प्रेम की आवश्यकता मनुष्य जीवन के लिए सहज स्वाभाविक है। इसकी पूर्ति न होने से मनुष्य एक ऐसा अभाव अनुभव करता है जिसका कष्ट संसार के सारे दुःखों से अधिक यातनादायक होता है। बच्चा माँ से प्रेम चाहता है। पत्नी पति से प्रेम चाहती है और पुरुष नारी से प्रेम की कामना करता है। पड़ोसी-पड़ोसी से, राष्ट्र राष्ट्रों से, मनुष्य मनुष्यों से, यहाँ तक कि जड़ वस्तुएँ भी प्रेम और आत्मीयता की भूखी रहती हैं। प्रेम पाने पर पशु अपनी भंगिमाओं से और जड़ पदार्थ अपनी उपयोगिता के रूप में प्रेम का प्रतिपादन करते हैं। प्रेम का यह आदान-प्रदान रुक जाए तो संसार असहनीय रूप से नीरस, कटु और तप्त हो उठे। पदार्थ अनुपयोगी हो उठे और मनुष्य घृणा, क्रोध और द्वेष की भावना से आक्रांत हो अपनी विशेषता ही खो दें। चारों ओर ताप ही परिव्याप्त हो जाए। प्रेम जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है जिसकी पूर्ति आदान-प्रदान के आधार पर होती ही रहनी चाहिए। तभी हम समस्त संसार के साथ विकास करते हुए अपने चरम लक्ष्य उस परमात्मा की ओर बढ़ सकेंगे जो अनंतानंद स्वरूप है, सत् है और चेतन है। प्रेम के आदान-प्रदान के बिना जीवन में सच्चा संतोष कदापि नहीं मिल सकता। मनुष्य आदि से अंत तक कलप-कलप कर जिएगा और तडप-तडपकर मर जाएगा।
प्रेम मनुष्यता का सबसे प्रधान लक्षण है और इसकी पहचान है त्याग अथवा उपसर्ग। यों तो प्रायः सभी मनुष्य प्रेम का दावा करते हैं। पर यथार्थ बात यह है कि उनका अधिकांश प्रेम स्वार्थ से प्रेरित होता है। वे अपने 'स्व' अपने 'अहं' की पूर्ति के लिए प्रेम का प्रदर्शन करते हैं और 'स्व' की तुष्टि हो जाने पर आँखें फेर लेते हैं। यह वह प्रेम नहीं है जिसे मनुष्यता को लक्षण कहा गया है। यह तो अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और लौकिक आवश्यकता की पूर्ति का एक उपाय है, साधन है। इससे वह आध्यात्मिक भाव-वह ईश्वरीय आनंद जाग्रत नहीं हो सकता जो कि सच्चे प्रेम की उपलब्धि और जिसको पाकर मानव जीवन कृतार्थ हो जाता है।
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