आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
जहाँ सच्चा प्रेम है, आध्यात्मिक आत्मीयता है वहाँ त्याग, उत्सर्ग और बलिदान की भावना होना अनिवार्य है। प्रेम में देना ही देना होता है लेने की भावना को वहाँ अवसर नहीं रहता। लेन-देन लौकिक जीवन का साधारण नियम है। इसमें प्रेम शब्द का आरोप करना अन्याय है। प्रेम जैसे पवित्र तथा इच्छा रहित ईश्वरीय भाव का अपमान करना है। प्रेम विशुद्ध बलिदान है। इसमें प्रेमी अपने प्रिय के लिए सब कुछ उत्सर्ग करके ही तृप्ति का अनुभव करता है। प्रेम में देना ही देना होता है लेना कुछ नहीं, पर परिवार, समाज, राष्ट्र और संसार के लिए निःस्वार्थ त्याग, निर्लेप बलिदान की भावना दिखलाई दे वहाँ पर ही प्रेम का अनुमान करना चाहिए। जिसमें दूसरों के लिए अपना सब कुछ दे डालने की भावना तो हो, पर उसके बदले में कुछ भी लेने का भाव न हो तो समझना चाहिए कि उस मनुष्य में सच्ची मनुष्यता का निवास है, वह धरती पर शरीर से देवता और अपनी आत्मा से परमात्मा रूप है।
प्रेम संसार का स्थायी सत्य है। यों तो संसार के रूप में जो कुछ भी दिखलाई देता है, सब सत्य जैसा ही आभासित होता है, पर वह सत्य नहीं सत्य का भ्रम मात्र है। आज देखते हैं कि हमारा एक परिवार है, स्त्री है, बच्चे हैं हम स्वयं हैं। जमीन है, जायदाद है, धन-दौलत है, संपत्ति है, संपदा है। सब व्यवहार में आते हैं, सब सत्य जैसे भासित होते हैं, पर क्या यह स्थाई सत्य है। कारण आता है, परिस्थिति उपस्थित होती है तो जीवन की अवधि समाप्त हो जाती है, सब कुछ स्वप्न हो जाता है। परिस्थिति उत्पन्न होती है तो जमीन बिक जाती है, जो कुछ आज हमारा था कल दूसरे का हो जाता है। ऐसी परिवर्तनशील बातों को सत्य कैसे माना जा सकता है ? सत्य वह है जो तीनों कालों में एक जैसा ही बना रहे। प्रेम ही केवल ऐसा सत्य है जो अपरिवर्तनशील और तीनों कालों में स्थिर बना रह सकता है। प्रिय के बिछुड़ जाने पर उसके प्रति रहने वाला प्रेम नहीं मरता, वह यथावत् बना रहता है। जमीन-जायदाद चली जाती है, पर उसके प्रति लगाव समाप्त नहीं होता, धन चला जाता है पर उसके प्रति अभीप्सा बनी रहती है। प्रेम ही संसार का स्थिर तथा स्थायी सत्य है और सारी वस्तुएँ नश्वर तथा परिवर्तनशील हैं। ऐसे प्रेम की साधना छोड़कर लौकिकता की आराधना करना सत्य को छोड़कर उसकी छाया पकड़ने की तरह अबुद्धिमत्तापूर्ण है।
प्रेम परमात्मा की उपासना का भावनात्मक रूप है। जो आत्मा को, परिवार को, राष्ट्र और समाज को प्रेम करता है, सारे मनुष्यों को यहाँ तक कि समस्त जड़-चेतन में आत्मीयता का सच्चा भाव रखता है, वह परमात्मा का सच्चा भक्त है। प्रेम हृदय की उस भावना का वाचिक रूप है जो अद्वैत का बोध कराती है। उसे 'मैं' और 'तुम' का, अपने-पराए का विलगाव नहीं रहता। समष्टिगत विशाल भावना को निःस्वार्थ परिपाक की आराधना मानव को महामानव और पुरुष को पुरुषोत्तम बना देती है। अस्तु इसी साध्य और महानता की उपासना श्रेयस्कर है, कल्याण तथा मंगलकारी है।
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