आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
यज्ञाग्नि के दो स्वरूप माने गए हैं एक "स्वाहा" दूसरा "स्वधा"-स्वाहा का अर्थ है आत्माहुति देना, त्याग उत्सर्ग करना और स्वधा के माने है आत्म-धारण करना। दोनों के संयुक्त स्वरूप में यज्ञाग्नि प्रकट होती है। प्रेम की आकांक्षा, इच्छा, प्रेम प्राप्ति का भाव, आत्म धारण करने के लिए है। प्रेम धारण नहीं किया जाएगा तो फिर दिया कहाँ से जाएगा। प्रेम प्राप्ति की लालसा सहज रूप में प्रेम-यज्ञ का प्रारंभिक कृत्य है। आम का पौधा सिंचाई सुरक्षा, खाद सेवा आदि के रूप में जब स्वधा शक्ति प्राप्त करता है तभी उस शक्ति को कई गुना असंख्य रूपों में उत्सर्ग कर सकता है। स्त्री अपने पति का अजस्त्र प्रेम प्राप्त करके ही उसे, बालकों को दे सकने में समर्थ होती है। जिसे किसी का प्रेम नहीं मिला वह दूसरे को भी शायद ही कुछ दे सके।
स्वधा शक्ति की प्राप्ति के अनंतर मनुष्य के भावों का विकास होता है, और वह अपने आपको स्वाहा करने लगता है, त्याग, आत्मोत्सर्ग करता है और स्वार्थ की जगह परमार्थ-त्याग का स्थान ले लेता है। जिससे प्रेम किया जाता है उसके लिए त्याग करने की इच्छा बढ़ जाती है। मनुष्य कष्ट उठाने लगता है। तब प्रेम का व्यावहारिक स्वरूप त्याग ही हो जाता है। आत्मोत्सर्ग, बलिदान की स्थिति के अनुसार ही प्रेम का सत्य स्वरूप विकसित होने लगता है। जब मनुष्य अपने आपको पूर्णतया स्वाहा कर देता है तब एक मात्र प्रेम की सत्ता ही सर्वत्र शेष रह जाती है।
जहाँ प्रतिदान की आकांक्षा है वहाँ प्रेम नहीं रहता। प्रेम केवल उत्सर्ग करना ही जानता है। जहाँ बदले में लेने की भावना है वहाँ प्रेम नहीं स्वार्थ है। उससे मनुष्य की आत्मा को परितोष प्राप्त नहीं होता। मनुष्य के आंतरिक बाह्य जीवन में अशांति, क्लेश, असंतोष ही बना रहेगा। स्त्री-पुरुष, माता-पिता और संतान, मित्र-मित्र, भक्त और भगवान के बीच जब स्वार्थमय प्रेम का आचरण होने लगता है तो सदैव विपरीत परिणाम ही मिलते हैं। गृहस्थ जीवन की अशांति, कलह, राग, द्वेष, मनुष्य-मनुष्य के बीच की धोखेबाजी, चालाकी, माता-पिता के प्रति अनुशासनहीनता, क्रूरता, भगवान के प्रति नास्तिकता, अविश्वास मनुष्य के बनावटी प्रेम की आड़ में काम कर रहे स्वार्थ, लोभ, मोह आदि के ही परिणाम हैं। कृत्रिम आत्मीयता ऐसी ही कष्टकर होती है।
सच्ची आत्मीयता दिव्य-तत्व है। इसके परिणाम सदैव दिव्य ही मिलते हैं, किंतु वह तब जबकि मनुष्य पुरस्कार की कामना से रहित होकर त्याग, बलिदान, आत्मोसर्ग करता है। इसका पुरस्कार तो स्वतः प्राप्त होता है और वह है आत्मसंतोष, शांति, प्रसन्नता, जीवन में उत्साह आदि।
आत्मीयता प्रेरित त्याग से विचारों में एकाग्रता पैदा होती है। मानसिक स्थिरता से पूर्ण तादात्म्य और इससे आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति होती है। भक्ति-योग का तत्वज्ञान हृदयंगम किया जाना ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक मार्ग है।
जब किसी काम से प्रेम नहीं होता तो उसमें कर्त्तव्य बुद्धि नहीं रहती। मनुष्य कई भूलें करता है, काम को बिगाड़ता है। वह उसे भारस्वरूप लगता है, दुखद बंधन जैसा। मनुष्य अपने काम से जी चुराने लगता है। प्रेम की शक्ति से ही कर्त्तव्य पूर्ण होता है। इसके अभाव में जबरन कार्य करने पर मनुष्य को शारीरिक और मानसिक रोग सताने लगते हैं।
अपनत्व के भाव में कठिन से कठिन काम भी सरल बन जाते हैं। उनमें कठिनाइयाँ होते हुए भी फूल चुनने जैसी सरलता महसूस होती है। प्रेम की अवस्था में कष्ट नाम की कोई स्थिति ही नहीं। प्रेम की धुन में कर्त्तापन और कर्मफल का ध्यान नहीं रहने से यह योगी की-सी स्थिति बन जाती है। केवल कर्त्तव्य ही सामने रहता है।
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