आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
कर्तव्य के अभिमान और फल की आकांक्षा के साथ ही क्षमताओं का विकास रुक जाता है। यही कारण है कि एक सरकारी नौकर को दफ्तर का चार-छ: घंटे का काम ही बोर कर देता है, जबकि देश प्रेमी, समाजसेवी, सेवानिष्ठ लोग अठारह घंटे काम करके भी नहीं थकते। प्रेम एक व्यापक तत्व है। उसके साथ ही अनंत शक्ति सामर्थ्य रहती है। उससे साधारण व्यक्ति भी महामानव बन जाता है।
अपनत्व से प्रसन्नता और सहज आनंद मिलता है। जिसमें शक्तियों का उद्रेक उसी तरह होता है जैसे पर्वतराज हिमालय अपने हृदय के अवयवों को पिघलाकर अनंत नदी स्रोत बहा देता है। आत्मविश्वास, निष्ठा, लगन, आशा की प्रबल हिलोरें मनुष्य के हृदय में उठने लगती हैं जो एक छोटे-से पुतले को तरंगित कर ऊँचा उठाती हैं। प्रेम के अभाव में मनुष्य थका-थका-सा रहता है। काम में मन नहीं लगता। फिर किसी भी क्षेत्र में सफलता मिलना दूर की बात है।
अपनत्व गिरे हुए मनुष्यों को उठाता है, क्योंकि गिरे हुए व्यक्ति वे होते हैं जिनके जीवन में प्रेम, स्नेह का अभाव रहा है। घर में परिजनों के प्रेम से वंचित लोग व्यसनी, परस्त्रीगामी, चरित्रहीन और पतित हो जाते हैं। पति अथवा सास-श्वसुर के अत्याचार से पीड़ित स्त्री घर से बाहर जाकर प्रेम की चाह करती है, जिसे उसे भ्रष्ट अथवा दूषित कहा जाता है। माँ-बाप के प्रेम से वंचित बच्चे निराशावादी, क्रोधी, ईर्ष्यालु, घृणा करने वाले, अन्यमनस्क, चरित्रहीन बन जाते हैं। लोगों में फैली हुई बहुत बुराइयों का मुख्य कारण उन्हें जीवन में दूसरों के स्नेह-प्रेम से वंचित होना ही होता है। कोई भी प्रेममय व्यक्ति इन लोगों को अपना प्रेम देकर फिर से सुधार सकता है। हमारे ऋषियों में महात्मा बुद्ध, सुकरात, ईसा, मुहम्मद, रामकृष्ण आदि ने अपना निश्छल सहज प्रेम देकर अनेक पतितों का उद्धार किया।
जब मनुष्यों का दृष्टिकोण प्रेममय होता है तो उसे दूसरों के दुर्गुण न दिखाई देकर सद्गुण दिखाई देते हैं। इससे मनुष्य के दोषदर्शन का दुर्गुण दूर हो जाता है। दूसरों के दुर्गुण न देखने से आलोचना में भी मन नहीं लगता। हिंसा, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, डाह की भावनाएँ प्रेम से धुल जाती हैं। प्रेम में हिंसा नहीं दया करुणा का निवास होता है। प्रेममय व्यक्ति अपना अहित करने वालों के प्रति भी दया, क्षमता, सहिष्णुता की भावना रखता है। उनके सुधार के लिए शुभकामना करता है।
मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण, चिंतन होता है वैसा ही उसके लिए यह संसार दिखाई देता है। मनुष्य जब दूसरों से प्रेम करता है तो दूसरे भी उसे प्रेम करते हैं, उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं। संसार कुएँ की आवाज है। मनुष्य संसार के प्रति जैसा आचरण करेगा, संसार से उसे वैसा ही प्रत्युत्तर मिलेगा। प्रेम से ही प्रेम मिलता है। प्रेम-मैत्री के विचार पहले व्यक्तिगत जीवन में ही आत्म-प्रेम, आत्म-प्रसाद के रूप में मिल जाते हैं। इतना ही नहीं प्रेम एकात्मकता पैदा करता है। देखा जाता है कि जिन व्यक्तियों में परस्पर प्रेम होता है उनके रंग, रूप, स्वभाव, विचार धीरे-धीरे एक से बन जाते हैं।
प्रेम एक तरह की मानसिक स्थिति है। इसका प्रवाह जिस ओर होगा उसी तरह के परिणाम भी प्राप्त होंगे। प्रेम का सहज और सरल प्रवाह नैसर्गिक कार्यों में होता है। पानी सदैव ऊपर से नीचे की ओर बहता है, किंतु किसी पेड़ की जड़ों द्वारा सोख लिया जाता है तो वही मधुर फलों, सुंदर फूल और शीतल छाया में परिवर्तित हो जाता है। सांसारिक प्रवाह में इस शक्ति के लगे रहने पर मनुष्य का जीवन पाशविक परिधियों में घिरा रहता है। प्रेम के प्रवाह का संचालन विवेक द्वारा होने पर वह जीवन में सत्यं शिवम् सुंदरम् की प्राप्ति कराता है। जीवन विकास की ओर अग्रसर होता है। बार-बार अपने आदर्श के प्रति बाह्य और आंतरिक क्षेत्र में प्रेम शक्ति का अभ्यास करने पर वैसा ही स्थाई भाव बन जाता है, फिर उसी की प्रेरणा से जीवन का संचालन होने लगता है। इस तरह के स्थायी भाव प्रारंभ में अधिक भी हो सकते हैं, किंतु उन सबमें समन्वय होना आवश्यक है। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ भावों की दिशा भी यदि अलग-अलग होगी तो वे आपस में टकराएँगे और शक्ति नष्ट होगी। यदि इन सभी भावों को आत्मविस्तार की दिशा में नियोजित रखा गया तो इनकी समन्वित शक्ति से अनुपम माधुर्य अनंत वैभव, असीम आनंद और अत्यंत सुख की प्राप्ति होगी।
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