आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
|
5 पाठकों को प्रिय 237 पाठक हैं |
आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
अध्यात्म क्षेत्र की आश्चर्यजनक, अवास्तविक और भयावह मान्यता यह है कि कुछ जन्त्र-मन्त्र की टन्ट-घन्ट करने से देवताओं को जाल में जकड़ा और मनमर्जी की मनोकामनायें पूरी करने के लिए विवश किया जा सकता है। इस भ्रम जाल ने मनुष्य जाति को बेतरह भटकाया है। ठोकरों पर ठोकर, असफलताओं पर असफलता प्राप्त करते रहने पर भी न जाने यह मान्यता क्यों नहीं हटती कि बिना मूल्य या कम मूल्य में उच्चस्तरीय सम्पदायें, सफलतायें प्राप्त कर सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। देवताओं का न जाने क्यों लोगों ने इतना हेय स्तर मान लिया है कि किसी की पात्रता, प्रामाणिकता परखे बिना मात्र पूजा उपचार के अथवा ऐसे ही गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने के बदले माँग हुए वरदान बरसाने के लिए तैयार बैठे रहते हैंं। यदि वस्तुतः ऐसा होता तो उसे अदृश्य जगत की अराजकता, अन्धेरगर्दी के अतिरिक्त और क्या नाम दिया जाता। जहाँ पात्रता, पराक्रम की कोई आवश्यकता न समझी जाय, मात्र छलभरी मनुहार ही अपनाने भर से उल्लू सीधा होता रहे तो उसे क्या कहा और समझा जाय यह विज्ञजनों का विचारणीय विषय है।
पूजा की जादुई क्षमता, गिड़गिड़ाने भर से मनचाही सम्पदा किस आधार पर सही मानी जाती है इसका कोई तुक किसी भी प्रकार नहीं बैठता। देव प्रतिमाओं की दर्शन-झाँकी करते फिरते और उन पर फल पत्ते चढ़ाने वाले न जाने उस नगण्य से क्रिया कौतुक के बदले क्या-क्या मनौती माँगते हैं। तथाकथित संत महात्माओं के दर्शन भर करने के लिए आतुर लोग तत्वदर्शन से सर्वथा अपरिचित प्रतीत होते हैं। वे आँखों से छवि देखने भर को ही दर्शन मान बैठे है और इतने भर से अपनी भक्ति-भावना का परिचय प्रस्तुत करते और मनचाहे वरदान पाने की अपेक्षा करते हैंं। इस मान्यता के पीछे क्या सिद्धांत काम करता होगा यह खोज करना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। दर्शन-झाँकी करने भर से दैवी अनुग्रह बरसने लगे तो इसका अर्थ यह होगा कि आत्म परिष्कार, जीवन शोधन, तप साधन जैसे कष्ट साध्य प्रतिपादन करने और वैसा कराने के लिए कहने वाले नितान्त मूर्ख हैं। जो काम चुटकी बजाते बिना किसी श्रम-त्याग के, उथली विडम्बनायें अपनाने भर से पूरा हो सकता है उसके लिए कोई कष्ट साध्य रीति-नीति अपनाने के झंझट में क्यों पड़ेगा?
मनुहार करने भर से दैवी अनुकम्पा बरसने लगने की मान्यता बाल-बुद्धि की परिचायक है। लेने वाले के हिस्से में ही सारी चतुरता नहीं आई, कुछ तो परख देने वाले में भी होती है। अपनी सुयोग्य कन्या कोई किसी भी ऐरे-गैरे याचक के पल्ले बाँधने और माँगने वालों की मनोकामना पूरी करने के लिए तैयार नहीं होता है? फिर दैवी अनुकम्पा का क्षेत्र ही क्यों ऐसा माना जाय कि वहाँ माँगने या पूजा-अर्चा की भोंडी लकीर पीट देने से ही मनमानी सफलता पाने का अधिकार मिल गया। यदि दैवी शक्तियाँ वस्तुतः ऐसे ही अनबूझ हों तो उन्हें भी विवेक शून्य कहा जायगा और अध्यात्म क्षेत्र में अनुशासनहीनता फैलाने, नियम मर्यादा समाप्त करने का दोषी ठहराया जायगा।
भौतिक जगत में सस्ते में बहुमूल्य पाने का नियम नहीं है। यहाँ सब कुछ प्रामाणिकता और पुरुषार्थ के आधार पर खरीदा जाता है। विज्ञजनों को अध्यात्म जगत में भी इसी विधान प्रचलन की आशा करनी चाहिए। जेबकटी, लूटमार अनैतिकों को और जादुई कौतुक बाल-बुद्धि को आकर्षित कर सकते हैंं। विज्ञजन इसे अनुचित मानते और लाभ कम घाटा अधिक देखकर मुँह मोड़ लेते हैंं। जिन्हें वस्तुतः अध्यात्म जगत का स्वरूप समझने में रुचि हो उन्हें उसके नियम-निर्धारणों को भी समझना चाहिए। विज्ञान ने यही किया है और श्रेय लिया है। पुरातन अध्यात्म का स्वरूप भी ऐसा ही था। उसमें तत्वदर्शन का महत्व समझा जाता था, ब्रह्म-विद्या के नीति-नियमों को अपनाया जाता था, अभीष्ट प्रगति के लिये तदनुरूप साधना का मूल्य चुकाया जाता था। आज तो सब कुछ उलटा ही उलटा दीखता है। भ्रम-जंजाल सघन अंधकार की तरह इतना गहन है कि हाथ को हाथ नहीं सूझता। लूटमार के लिए आतुर लोग अपने को भक्त कहते और भक्ति के प्रतिफल का दावेदार मानते हैंं। मनोकामना पूर्ण न होने पर गाली देने से लेकर अश्रद्धा व्यक्त करने में उग्र रूप धारण करते देखे जाते हैंं। प्रचलित मान्यताओं को क्या कहा जाय? उनके प्रचलन का क्या आधार खोजा जाय? और उन्हें अपनाने वालों को बुद्धिमान, अबुद्धिमान क्या कहा जाय? कुछ कहते नहीं बनता। समझ कुछ काम ही नहीं करती।
|